________________
लंगड़ा, लूला, कोढ़ी, अपाहिज आदि बनना : हिंसा का फल
१११
एकविध एकविध - हिंसादि करने या कराने का सिर्फ मन से या सिर्फ वचन से या सिर्फ काया से त्याग करना यह छठा प्रकार है ।
-
इसे एक श्लोक में यों संगृहीत किया गया - प्रथम भेद - द्विविधत्रिविध, द्वितीय भेदद्विविध- द्विविध, तृतीय भेद द्विविध- एकविध चतुषं भेद एकविध - त्रिविध, पांचवां भेद – एकविध - द्विविध और छठा भेद - एकविध एकविध है। इन सब विकल्पों (भंगों ) की तीन करण और तीन योग के साथ गणना की जाय तो इनके कुल ४६ भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं
हिंसा न करने के करण (कृत) को अपेक्षा से ७ विकल्प – (१) मन, वचन, काया से, (२) मन और वचन से, (३) मन और काया से, (४) वचन और काया से. (५) सिर्फ मन से (६) सिर्फ काया से। इसी तरह हिमा न कराने ( कारित) की अपेक्षा से ७ विकल्प होते हैं। तथा अनुमोदन की अपेक्षा से भी सात विकल्प होते है- हिंसा न करे, न करावे, मन से, वचन से, काया से, मन-वचन से मन काया से, वचन काया से, मन, वचन और काया से यह करण और कारण से होने वाले सात भंग हुए । इसी तरह करण के अनुमोदन से सात भग, कारण ( कारित) के अनुमोदन से सात भंग, तथा करना, कराना और अनुमोदन से होने वाले सात भंग । ये सब मिला कर ४६ विकल्प-भग हंति है । और ये त्रिकाल -विषयक होने से प्रत्याख्यान के कुल १४७ भग होते हैं । ग्रन्थों में कहा है कि - जिसने प्रत्याख्यान ( पच्चक्खान) के १४७ विकल्प (भंग) हस्तगत कर लिये, वह प्रत्याख्यान - कुशल माना जाता है। उससे कम भंगों वाला सर्व भंगों से प्रत्याख्यान के रूप में अकुशल समझा जाता है। त्रिकाल विपयक इस प्रकार से है : अतीतकाल में जो पाप हुए हों, उनकी निंदा करना, वर्तमानकाल के पापों का संवर करना ( रोकना) और भविष्यकाल के पापों का प्रत्याख्यान करना । कहा भी है- "श्रमणोपासक भूतकाल के पापों के लिए आत्मनिंदा (पश्चात्तापमय करता है, वर्तमान के पापों का निरोध करता है और भविष्यकाल के पापो का प्रत्याख्यान करता है।" ये भंग (विकल्प) अहिसा - अणुव्रत की अपेक्षा से कहे हैं। दूसरे अणुव्रतों के लिए भी इसी तरह विकल्प (भंग) जाल समझ लना ।
,
इस तरह सामान्यरूप से हिंसादि से सम्बन्धित विरति बता कर अब हिसा आदि प्रत्येक का स्वरूप बताने की इच्छा से सर्वप्रथम हिंसा से किन-किन परिणामों का अनुभव करना पड़ता है, यह बताते है --
पंगु कुष्टि कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥१९॥
अर्थ
हिंसा का फल लगड़ापन, कोढ़ीपन, हाथ-पैर आदि अंगों की विकलता आदि मिलता है। इसे देख कर बुद्धिमान पुरुष निरपराध त्रस जोवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करे ।
व्याख्या
जब तक जीव पाप का फल अपनी आंखों से नहीं देख लेता, तब तक पाप से वह प्राय: नहीं हटता । इसलिये यहां पाप का फल बता कर हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया है। पैर होने पर भी चलने में असमर्थ हो, उसे लंगड़ा, कुष्ट रोग वाले को कोढ़िया, हाथ-पैर आदि से रहित को लूला कहते