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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश इसके समाधान में कहते हैं-चूकि गृहस्थ अपने परिवार के साथ रहता है, साथ ही इसके लिए धन-धान्य आदि परिग्रह का भी उसे स्वीकार करना पड़ता है, ऐसी दशा में परिवार में से कोई व्यक्ति हिसा, परिग्रह आदि करें तो उसमें उक्त व्रती गृहस्थ की अनुमति-अनुमोदना आ ही जाती है; इस दृष्टि से उसे अनुमोदना का दोष लगता ही है। अन्यथा परिग्रही और अपरिग्रही मे कोई अन्तर न रहने से दीक्षित (श्रमण) और अदीक्षित (श्रमणोपासक) का भेद ही समाप्त हो जायगा। इसलिए विविधविविधरूप से ही हिसा आदि के त्याग का धावक के लिए आम विधान है। जिसका अर्थ यों हैद्विविध यानी दो करण-करना और कराना, त्रिविध यानी तीन योग : मन, वचन और काया । इसका अर्थ यो हुआ कि मैं मन, वचन, और वाया से, स्थूल हिंसा नहीं करूंगा. न हा कराऊंगा। तीसरा करण अनुमोदन खुल्ला है। यहां का हानी है कि भगवतीसूत्र आदि आगमो में श्रावक के लिए त्रिविध त्रिविध (तीन करण तीन योग में) प्रत्याग्यान करना निहित है। शास्त्र में प्रतिपादित होने से वह अनवद्य (निर्दोष) ही है, तब उसका प्रतिपादन यहाँ क्यो नही करते ? इसके समाधान मे कहते हैंकिसी विशेष परिस्थिति में ही श्रावक के लिए यह विहित है ; जैसे कोई श्रावक मुनिदीक्षा लेने का अभिलाषी हो, किन्तु पुत्रादि परिवार के पालन करने हेतु प्रतिमा धारण करके रहता है, वह अथवा जो श्रावक स्वयम्भूरमण आदि समुद्रों में रहे हुए मत्स्य आदि की स्थूल हिसा आदि का विशेष परिस्थिति में प्रत्याख्यान करता है, वह, पूर्वोक्त विविध-विविधरूप प्रत्याख्यान कर लेता है ; उनकी अपेक्षा से भगवतीसूत्रादि में वैसा विधान किया गया है। और उसका समावेश करने की दृष्टि से ही यहाँ द्विविध-त्रिविध' शन्द के आगे 'आदि' शब्द का प्रयोग किया है। मगर इस प्रकार के आराधक श्रावक बहुत ही विरले होते है । इसलिए हमने यहा नही बताया। आमतौर पर श्रावक के लिए विविधत्रिविध रूप से प्रत्याय्यान विहित है ।
श्लोक के दूसरे चरण में द्विविध के आगे 'आदि' शब्द पड़ा है, अत: विविध विविध के अलावा जो विकल्प (भंग) होते हैं, वे इस प्रकार है
द्विविध-विविध-स्थल हसा न करे, न कराये ; मन और वचन में, अथवा मन और काया से. या वचन और काया से। यह दूसग प्रकार है। जब मन और वचन से करने-कगने का प्रत्याख्यान करता है, नब मन से अभिप्राय न दे कर वचन में भी हिमा के लिए कथन नहीं करता; काया से भी असजी की तरह पापचेष्टा करता है। मन और काया से हिसा न करने न कराने का अर्थ यह है कि मन में हिसा का अभिप्राय नही रखना, काया में भी हिंसा-प्रवृत्ति का त्याग करता है। परन्तु अनुपयोग (अज्ञान) अवस्था में ही वाणी से कभी हिमा-प्रवृत्ति कर बैठना है। वचन और काया से करने-कराने के न्याग का अर्थ तो स्पष्ट है, लेकिन इम प्रकार के भग में त्याग करने पर मन से अभिप्राय करके हिमा करने-कराने की छूट रहती है अनुमोदन-न्याग नो उक्त तीनों में नहीं है। इस प्रकार अन्य विकल्पों का भी विचार कर लेना चाहिए।
द्विविध-एकविध करने और कगने का मिर्फ मन में या मिर्फ वचन से या मिकं काया से त्याग करना । यह तीमरा प्रकार है।
एकविध-त्रिविध-हिमादि करने या कराने का मन मे वचन और काया मे त्याग करना। यह चौथा प्रकार है।
एकविध-विविध -हिमादि करने या कराने का मन और वचन से या मन और काया से, अथवा वचन और काया से त्याग करना । यह पांचवा विकल्प है।