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सुगुरु और कुगुरु का अन्तर
अब कुगुरु का लक्षण बताते हैं
सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरुवो न तु ॥९॥ अर्थ
सभी वस्तुओं की चाह वाले, सभी प्रकार का भोजन कर लेने वाले; समस्त परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी एवं मिथ्या उपदेश देने वाले गुरु नहीं हो सकते ।
व्याख्या
उपदेश आदि दे कर बदले में स्त्री, धन, धान्य, स्वर्ण, क्षेत्र, मकान, चौपाये पशु आदि सभी चीजें बटोरने के अभिलाषी, आवश्यक-अनावश्यक सभी प्रकार की वस्तुएं संग्रह करके अपने अधिकार और स्वामित्व में रखने वाले मांस, मदिरा, नशीली चीजें, सड़ी-बासी, अनन्तकाय आदि जो भी चीज मिल जाय उसे खा-पी लेने वाले सर्वभोजी, जमीनजायदाद, स्त्रीपुत्र आदि परिग्रह रखने वाले तथा उक्त परिग्रह के कारण अब्रह्मचारी अगुरु होते है । पूर्वोक्त महादोषों के कारण उन्हें अब्रह्मचारी (आत्मा से बाह्य पुद्गलों में रमण करने वाला -! - पुद्गलानन्दी) बतलाया है । अन्त में अगुरुत्व का एक असाधारण कारण बताया है— 'मिथ्योपदेशा:' अगुरु का उपदेश शुद्ध धर्म से युक्त नहीं होता; उसमें हिंसा, कामना, असत्य, मद्य या नशीली चीजो के सेवन आदि के पोषक वचन अधिक होते हैं। वह उपदेश आप्त पुरुषों के उपदेश से रहित होता है, इसलिए उसे धर्मोपदेश नहीं कहा जा सकता ।
यहाँ प्रश्न होता है कि धर्मोपदेश देने से ही उनका गुरुत्व सिद्ध हो गया, फिर उनमें निष्परिग्रहत्व आदि गुणों को खोजने की क्या आवश्यकता रह जाती है ? इसी के उत्तर में कहते हैंपरिग्रहाऽरम्भमाययुः कथं परान् ।
स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकतु मीश्वरः ॥१०॥
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अर्थ
स्वयं परिग्रह और आरम्भ में गले तक डूबा हुआ, दूसरों को कैसे तार सकता है ? जो स्वयं दरिद्र हो, वह दूसरे को धनाढ्य कैसे बना सकता है ?
व्याख्या
स्त्री- पुत्र, धन-धान्य, जमीन-जायदाद आदि के परिग्रह के कारण जीवहिंसा आदि अनेक आरम्भों में डूबा रहने वाला, सभी पदार्थों को पाने की लालसा करने वाला एवं सर्वभोजी होने से स्वयं ही संसारसमुद्र में डबा हुआ है तो फिर दूसरों को भवसमुद्र पार करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? इसे ही साधक दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं— 'जो स्वयं कंगाल हो, वह दूसरों को श्रीमान् कैसे बना सकता है ?"
अब धर्म का लक्षण बताते हैं
दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । संयमार्ग देशावधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥११॥