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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश को सौगत दया कैसे कहा जा सकता है? प्रकृति के धर्म की निरर्थकता को ज्ञान मान कर आत्मा (पुरुष) को निर्गुण, निष्क्रिय मानते हैं, ऐसे विवेकविकल कपिल को देव मानना कैसे सुसंगत हो सकता है ? समस्त दोषों के आश्रय के समान गणाधिप, स्कन्द, कार्तिकेय, पवन आदि को भी (परम) देव कैसे कहा जा सकता है ? गाय पशु है प्रायः विष्ठा भी खाती है, कई दफा अपने ही पुत्र के साथ मंथन-सेवन करती है, मौका आने पर अपने सींगों से जीवों का घात भी कर डालती है. अतः वह वंदनीय कैसे हो सकती है ? 'वह दूध देती है। इसलिए उसे वन्दनीय माना जाय तो भैस भी दूध देने वाली होने से वन्दनीय क्यों नहीं ? भैस से गाय में खास विशेषता नहीं है। यदि गाय को प्रत्येक तीर्थ, ऋषि और देव का आश्रयस्थान मानते हो तो उसे दहते क्यों हो? मारते और बेचते क्यों हो? और मुसल, ऊखल, चुल्हा, चौखट, पीपल, नीम, वट, आक और जल आदि को देवता मानते हो, इनमें से किसका किसने त्याग किया ? इनमें देवत्व को मान्यता होने पर तो इनका इस्तेमाल करना ही छोड़ देना चाहिए, इन्हें सिर्फ पूजना ही चाहिये न ? इसी कारण वीतरागस्तोत्र में हमने कहा है-"उदर और उपस्थरूप इन्द्रियवर्ग में विडम्बित देवों से कृतकृत्य बने हुए, हम देवों को मानने वाले देवास्तिक हैं, इस प्रकार की अहंबुद्धि वाले कुतीर्थी आप (वीतराग) जैसों का (देवत्वहीन मान कर) अपलाप करते हैं, सचमुच यह दुःख का विषय है।" अब सुगुरु का लक्षण बताते हैं महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामयिवस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ।।८॥ अर्थ पंच महाव्रत धारण करने वाले, उपसर्गों और परिषहों के समय धैर्य धारण करने वाले, भिक्षामात्र से अपना निर्वाह करने वाले, सामायिकवारित्री एवं शुद्धधर्म के उपदेष्टा गुरु माने गए हैं। व्याख्या अहिंसा आदि पांच महावतों के धारक, आपत्काल में, उपमर्ग या परिपह आने पर उन्हें कायरता से रहित हो कर धैर्यपूर्वक सह कर अपने महाव्रतों को अखण्डित रखने वाले मुनि ही गुरु के योग्य हैं। गुरु में मूलगुणों का प्रतिपादन करके अब उनमें उत्तरगुणों का भी अस्तित्व बताने की दृष्टि से कहते हैं - भक्षमात्रोपजीविनः' अर्थात् वे गुरु आहार-पानी या आवश्यक धर्मोपकरण सिर्फ दातागृहस्थों से भिक्षा के रूप में प्राप्त कर एकमात्र भिक्षावृत्ति से निर्वाह करते हैं, न कि अपने पास उक्त पदार्थों की पूर्ति के लिए धन, धान्य, सोना-चांदी, गांव या नगर आदि पर स्वामित्व-(ममत्व) रूप परिग्रह रखते हैं। अब गुरु में मूलगुण और उत्तरगुण को धारण करने में कारणभूत गुण बताते हैं- 'सामायिकस्याः ' वे सामायिक चारित्र में स्थिर रहते हैं। सामायिक में स्थित हो कर ही वे मूलगुण और उत्तरगुणरूप चारित्र का पालन करने में समर्थ हो सकते हैं। यह सभी मुनियों का माधारण लक्षण है। अब गुरु का असाधारण लक्षण बताते हैं-'धर्मोपदेशकाः' सच्चे गुरु होते है वे शुद्ध धर्म-सूत्रचारित्ररूप, संवरनिरामय, अथवा साधु-श्रावक-सम्बन्धिभेदयुक्त धर्म का उपदेश करते हैं। इसी कारण 'अभिधानचिन्ता. मणि' कोश में हमने बताया है-'गुरुधर्मोपदेशक: ; गुरु वह है, जो धर्मोपदेश देता है .' सुशास्त्र के यथार्थ (सद्भूत) अर्थ का बोध देने वाला भी गुरु कहलाता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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