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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश मिथ्यात्व के सम्बन्ध में कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं-'मिथ्यात्व महारोग है, मिथ्यात्व महान् अन्धकार है, मिथ्यात्व जीव का महाशत्रु है ; मिथ्यात्व महाविष है। रोग, अन्धकार और विष तो जिंदगी में एकबार ही दुःख देते हैं. परन्तु मिथ्यात्वरोग की विवित्सा न की जाय तो यह हजारों जन्मों तक पीड़ा देता रहता है। गाढ़-मिथ्यात्व से जिसका चित्त घिरा रहता है, वह जीव तत्वअतत्व का भेद नहीं जानता। जो जन्म से अंधा हो, वह भला किसी भी वस्तु की मनोहरता या अमनोहरता कैसे जान सकता है ?
अब देव और अदेव, गुरु और बगुरु तथा धर्म और अधर्म का लक्षण बताते हुए सर्वप्रथम देव का स्वरूप बताते हैं
सर्वज्ञो लिसंसदे-दोषस्त्रलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥४॥
अर्थ सर्वभाव को जानने वाले, राग-द्वेषादि दोषों को जीतने वाले, तीन लोक के पूजनीय और पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को कहने वाले देव अर्हन् अथवा परमेश्वर कहलाते हैं।
व्याख्या देव में देवत्व के लिए चार अतिशय आवश्यक बताए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) ज्ञानातिशय, (२) अपायापगमातिशय, (३) पूजातिशय और (४) वचनातिशय । देवाधिदेव अर्हन का पहला विशेषण 'सर्वज्ञ' बता कर, समग्र जीव-अजीवादि तत्त्व को जानने वाले होने में उनका ज्ञानातिशय सूचित किया है। परन्तु उनका ज्ञान अपने रचे हुए शास्त्र में परसर-विरुद्ध कथन वाले अन्य दार्शनिकों का-सा नहीं है । अन्य दार्शनिकों का कहना है -'संमार की सभी वस्तु देखो, चाहे न देवो ; ईप्ट तत्त्व को देखो । कीड़ों के दर में कितने कीट हैं ? यह ज्ञान हमारे किम काम का ? दूर-सुदूर तक देखो या न देखो ; हमें प्रयोजन हो, नभी देखना चाहिए । यदि दूर तक देखने वालों को प्रमाणभत मानना है तो दूरदृष्टि वाले गिद्धों की उपासना करो।' परन्तु जैनदर्शन का कहना है विवक्षित एक ईप्ट पदार्थ का (सर्वथा) ज्ञान समयपदार्थ के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। प्रत्येक भाव के दूसरे भावों के माथ साधारण और असाधारण रूप से समप्र ज्ञान के बिना एक भी पदार्थ लक्षणसहित तथा उसके विपरीत अन्वय-व्यतिरेक के रूप में नहीं जाना जा सकता। कहा भी है -'जिसने सर्व प्रकार से एक भाव देखा है, वह तत्त्वतः सर्वभावों (द्रव्य-गुण-पर्यायरूप सर्वभावों) को जानना है; जिसने सर्वभावों को सर्वप्रकार से देखा है; उसने तत्त्वतः एकभाव को (सर्वथा) देखा है।
दूसरा "नितरागादियोषः' (जिमने राग-द्वेप आदि दोपों को जीत लिया है) विशेषण भगवान् देवाधिदेव अर्हन्त के अपापापगमातिराय को सूचित करता है । अपाय का अर्थ है विघ्न या दोष । सारे संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि-राग, देष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार आत्म-साधना में विघ्नरूप हैं, ये आत्मा को दूषित करने वाले हैं, इसलिए ये दोषरूप हैं। इसलिए भगवान देवाधिदेव इनसे जूम कर इन्हें जीत चुके होते है । तात्पर्य यह है कि अहंन्तदेव ने इन सभी अपायभूत दोषों को सदा के लिए खदेड़ दिया है । इम तत्त्व से अनभिज्ञ कई लोग कहते है-कोई पुरुष रागादि रहित है, ऐसा कहना सिर्फ वाणी विलास है । लेकिन यह कथन भ्रान्तिपूर्ण है। रागादि विकारों को नहीं जीतने