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सम्यक्त्व के विपक्षी मिथ्यात्व का स्वरूप और उसके प्रकार इसका त्याग कर दिया हो तो भी वह जीव चतुर्गतिरूण संसार में अधिक समय तक परिभ्रमण नहीं करता । और जो मनुष्य इसका दीर्घकाल तक मेवन करता है, सदा ही इसे धारण करता है, उसके लिए तो कहना ही क्या ? तात्पर्य यह है कि ऐसा सम्यक्त्वी जीव अल्पसमय में ही मोक्ष-सुख का अधिकारी बन जाता है।
उस सम्यक्त्व का वास्तविक स्वरूप उसके विपक्ष का ज्ञान होने से ही भलीभांति समझा जा सकता है, इसलिए सम्यक्त्व के विपक्षी मिथ्यात्व का स्वरूप बताते हैं
अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधोरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥६॥
अर्थ जिसमें देव के गुण न हों, उसमें देवत्वबुद्धि, गुरु के गुण न हों, उसमें गुरुत्वबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि रखना मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व से विपरीत होने के कारण यह मिथ्यात्व कहलाता है।
व्याख्या जिस व्यक्ति की अदेव में देवबुद्धि हो, अगुरु में गुरुबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि हो, वहाँ मिथ्यात्व कहलाता है । यह सम्यक्त्व से विपरीत-तत्त्वरूप होने से (जिसका लक्षण आगे बताया जायगा) अदेव, अगुरु और अधर्म की मान्यतारूप मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का सीधा लक्षण सम्यक्त्व से विपरीत होने से सम्यक्त्व से विपरीत स्वरूप का समझना चाहिए । यहाँ मिथ्यात्व का यह लक्षण भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि देव में अदेवत्व, गुरु में अगुरुत्व और धर्म में अधर्मत्व की मान्यता रखना।
___ वह मिथ्यात्व पांच प्रकार का है-आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, माभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक ।
(१) आभिग्राहक-जहां पाखंडी की तरह अपने माने हुए (असत्) शास्त्र के ज्ञाता हो कर परपक्ष का प्रतीकार करने में दक्षता होती है, वहाँ आभिग्रहिक मिथ्यात्त्व होता है।
(२) अनाभिग्रहिक-माधारण अशिक्षित लोगों की तरह तत्त्वविवेक किये बिना ही बहकावे में आ कर सभी देवों को वंदनीय मानना; सभी गुरुओं और धर्मों के तत्त्व की छानबीन किये बिना ही समान मानना, अनाभिग्रहिक है। या अपने माने हुए देव, गुरु, धर्म के सिवाय सभी को निन्दनीय मानना, उनसे द्वेष या घृणा करना भी अनाभिहिक मिथ्यात्व है।
(३) आभिनिवेशिक - अन्तर से यथार्थ वस्तु को समझते हुए भी मिथ्या कदाग्रह (झूठी पकड़) के वश हो कर जामालि की तरह सत्य को झुठलाने या मिथ्या को पकड़े रखने का कदाग्रह करना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है।
(४) सांशयिक-देव, गुरु और धर्म के सम्बन्ध में व्यक्ति की संशय की स्थिति बनी रहना कि 'यह सत्य है या वह सत्य है ?', वहाँ सांशयिक मिथ्यात्व होता है।
(५) अनामोगिक-जैसे एकेन्द्रियादि जीव विचार से शून्य और विशेषज्ञान से रहित होते हैं, वैसे ही व्यक्ति भी जब विचारजड़ हो जाता है, सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के बारे में कुछ भी सोचता नहीं है, तब वहाँ अनाभोगिक मिथ्यात्त्व होता है । इस तरह यह पांच प्रकार का मिथ्यात्व है।