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उत्तमसंयम 0 ८७ संयम दो प्रकार का होता है :(१) प्राणीसंयम और (२) इन्द्रियमंयम ।
छहकाय के जीवों के घात एवं धान के भावों के त्याग को प्राणीसंयम और पंचेन्द्रियों तथा मन के विषयों के त्याग को इन्द्रियसंयम कहते हैं।
षटकाय के जीवों की रक्षारूप अहिंसा एवं पंचेन्द्रियों के विपयों के त्यागरूप व्रतों की वात जब भी चलती है-हमारा ध्यान परजीवों के द्रव्यप्राणरूप घात एवं वाह्य भोगप्रवत्ति के त्याग की ओर ही जाता है; अभिप्राय में जो वासना बनी रहती है. उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता।
इस संदर्भ में महापंडित टोडरमलजी लिखते हैं :
"बाह्य त्रस-स्थावर की हिंसा तथा इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति उसको अविरति जानता है; हिंमा में प्रमाद परिगति मूल है और विषयसेवन में अभिलापा मल है उमका अवलोकन नहीं करता। तथा बाह्य क्रोधादि करना उसको कषाय जानता है, अभिप्राय में राग-द्वेप वम रहे हैं उनको नहीं पहिचानता।" ___ यदि वाह्य हिमा का त्याग एवं इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति नहीं होने का ही नाम संयम है. तो फिर देवगति में भी मंयम होना चाहिए क्योंकि सोलह म्वर्गों के ऊपर तो उक्त बातों की प्रवृत्ति संयमी पुरुपों से भी कम पाई जाती है।
सर्वार्थसिद्धि के सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्रों के पंचेन्द्रियों के विपयों की प्रवृत्ति बहुत कम या न के बरावर-मी पाई जाती है । स्पर्शनेन्द्रिय के विषय सेवन (मैथुन) की प्रवृत्ति तो दूर, तेतीस सागर तक उनके मन में विषय सेवन का विकल्प भी नहीं उठता।
सर्वमान्य जैनाचार्य उमास्वामी ने स्पष्ट लिखा है :"परेऽप्रवीचाराः' सोलह स्वर्गों के ऊपर प्रवीचार का भाव भी नहीं होता।
रसना इन्द्रिय के विषय में भी उन्हें तेनीम हजार वर्ष तक कछ भी खाने-पीने का भाव नहीं पाता। तेतीस हजार वर्ष के बाद भी ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २२७ ' तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय ४, सूत्र ६