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७८० धर्म के पराला
उत्तमसत्य प्रति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित वीतरागभाव । मत्य बोलना तो निश्चय से सत्यधर्म है ही नहीं, पर मात्र सत्य जानना, सत्य मानना भो वास्तविक सत्यधर्म नहीं है। क्योंकि मात्र जानना और मानना क्रमशः ज्ञान और श्रद्धा गुण को पर्यायें हैं; जबकि सत्यधर्म चारित्र गुगण की पर्याय है, चारित्र को दशा है। उत्तमक्षमादि दशधर्म चारित्ररूप हैं - यह बात दशधर्मों की सामान्य चर्चा में अच्छी तरह स्पष्ट की जा चुकी है ।
__अनः सत्यवाणी की बात तो दूर, मात्र सच्ची श्रद्धा और सच्ची समझ भी सत्यधर्म नहीं; किन्तु सच्ची श्रद्धा और सच्ची समझपूर्वक उत्पन्न हुई वीतराग परिणति ही निश्चय से उत्तमसत्यधर्म है ।
नियम नाम चारित्र का है। नियम की व्याख्या करते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में लिखते हैं :
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। अप्पारणं जो झायदि तस्म दुरिणयमं हवे रिगयमा ॥१२०॥
शुभाशुभ वचन-रचना का और गगादि भावों का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसे नियम से (निश्चितरूप से) नियम होता है।
यहाँ भी चारित्ररूप धर्म को वाणी (शुभाशुभ वचन-रचना) और रागादि भावों के अभावरूप कहा है। मत्यधर्म भी चारित्र का एक भेद है। अतः वह भी वागगी और रागादि भावों के अभावरूप होना चाहिए।
सत् अर्थात् जिसकी सत्ता है । जिस पदार्थ की जिस रूप में सत्ता है उसे वैसा ही जानना सत्यज्ञान है, वैसा ही मानना सत्यश्रद्धान है, वैमा ही बोलना सत्यवचन है; और आत्मस्वरूप के सत्यज्ञानश्रद्धानपूर्वक वीतराग भाव की उत्पत्ति होना सत्यधर्म है।
अमत् की सत्ता तो सापेक्ष है। जीव का अजीव में प्रभाव, अजीव का जीव में अभाव- अर्थात जीव की अपेक्षा अजीव असत और अजीव की अपेक्षा जीव असत् है । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत् और परचतुष्टय की अपेक्षा असत् है।। __वस्तुतः लोक में जो कुछ भी है वह सब सत् है, असत् कुछ भी नहीं है । किन्तु लोगों का कहना है कि हमें तो जगत में असत्य का ही साम्राज्य दिखाई देता है, सत्य कहीं नजर ही नहीं पाता। पर भाई!