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उत्तममा
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वे दिन-रात आत्मा का ही चिन्तन-मनन-अनूभवन करते रहते हैं, अतः उनकी वाणी में भी उसकी ही चर्चा निकलती है और चर्चा करते-करते वे प्रात्मानुभवन में समा जाते हैं। उनके मन में अशुभ भाव माते ही नहीं।
हमारी स्थिति उनसे भिन्न है। अतः हमें अपने स्तर पर विचार करना जरूरी है। मन में होने पर भी बहुत से पापों से जीवन में हम इसलिए बचे रहते हैं कि समाज उन कार्यों को बुरा मानता है, सरकार उन कार्यों को करने से रोकती है। कभी-कभी हमारा विवेक भी उन कार्यों में हमें प्रवृत्त नहीं होने देता। वाणी को भी हम उक्त कारणों से काफी संयमित रखते हैं।
__यही कारण है कि जगत के कायिक जीवन में उतनी विकृति नहीं, जितनी की जन-जन के मनों में है। 'मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये' का उपदेश मन की विकृतियों को बाहर लाने के लिए नहीं, वरन उन्हें समाप्त कर मन को पावन बनाने के लिए है।
__ यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि यदि यह बात है तो फिर आप यह क्यों कहते हैं कि- 'मन में होय सो मन में रखिये।' इसका भी कारण है और वह यह कि मन को इतना पवित्र बना लेना इतना आसान नहीं कि यहाँ हमने कहा और वहाँ आपने बना लिया। वह तो बनते-बनते ही बनेगा। अतः जब तक मन पूर्णतः पावन नहीं वन पाता, उसमें दुर्भाव उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक हमारी उक्त सलाह पर चलना मात्र उपयुक्त ही नहीं वरन् आवश्यक भी है, अन्यथा आपका जीवन स्वाभाविक भी न रह सकेगा। __यदि मन को पवित्र बनाये बिना ही आपने मन की बातें वाणी में उगलना प्रारम्भ कर दिया एवं उन्हें कार्यरूप में भी परिणत करने की कोशिश की तो हो सकता है कि लोग आपको मानसिक चिकित्सालय में प्रवेश दिलाने का प्रयत्न करने लगें।
वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति मन में आये खोटे भावों को रोकने का प्रयत्न करता ही है। वह चाहता है कि वाणी में खोटा भाव प्रकट ही न हो। पर कभी-कभी जब मन भर जाता है, वह भाव मन में समाता नहीं, तो वाणी में फूट पड़ता है। एक बात यह भी है कि जब कोई भाव निरंतर मन में बना रहता है तो फिर वह वाणी में