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५२ धर्म के दशलक्षरण
'मन में होय सो वचन उचरिये' का आशय मात्र यह है कि मन को इतना पवित्र बनाओ कि उसमें कोई खोटा भाव प्रावे ही नहीं । जिनके हृदय में निरन्तर अपवित्र भाव ही आया करते हैं, उनके लिए तो यही ठीक है कि :
'मन में होय सो मन में रखिये, वचन होय तन सों न करिये ।' क्यों ?
क्योंकि आज लोगों के मन इतने अपवित्र हो गये हैं, उनके मनों में इतनी हिंसा समा गई है कि यदि वह वारणी मे फूट पड़े तो जगत में कोलाहल मच जाये और यदि जीवन में आ जाय तो प्रलय होने में देर न लगे। इसीप्रकार मन इतना वासनामय और विकृत हो गया है कि यदि मन का विकार वारणी और काया में फूट पड़े तो किसी भी माँ-वहिन की इज्जत सुरक्षित न रहे । अतः यह ही ठीक है कि जो पाप मन में आ गया, उसे वहीं तक सीमित रहने दो, वारणी में न लानो; जो वारणी में आ गया, उसे क्रियान्वित मत करो ।
जरा विचार तो करो कि गुस्से में यदि मेरे मुँह से यह निकल जाय कि 'मैं तुम्हें जान से मार डालंगा तो क्या यह उचित होगा कि मैं अपनी बात को कार्यरूप में भी परिणित करूँ ? नहीं, कदापि नहीं । बल्कि आवश्यक तो यह है कि में उस विचार को भी तत्काल त्याग दें ।
अतः यही उचित है कि मन-वचन-काय की एकरूपता अच्छाई में ही हो, बुराई में नहीं । हमें मन-वचन-काय में एकरूपता लाने के लिए मन को इतना पवित्र बनाना होगा कि उसमें कोई खोटा भाव कभी उत्पन्न ही न हो, अन्यथा उनकी एकरूपता रखना न तो सम्भव ही होगा और न हितकर ही ।
तत्त्वार्थसूत्र में उत्तमक्षमा मार्दव, आर्जव आदि दशधर्मो की चर्चा गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा और परीषहजय के साथ की गई है - ये सब मुनिधर्म से सम्बन्धित हैं । अतः श्रार्जवधर्म की चर्चा भी उन मुनिराजों के सन्दर्भ में ही हुई है, जिनके मन-वचन-काय की दशा निम्नलिखितानुसार हो रही है :
दिन रात प्रात्मा का चिंतन, मदुसंभाषरण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा प्रन्तर्मन ॥