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४८ - धर्म के पशलक्षण करे कुछ और, यह माया है-ऐसा कहा जाता है। मन-वचन-काय की इस विरूपता को ही वक्रता, कुटिलता आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है।
किन्तु यह सब स्थूल कथन है। सूक्ष्मता से विचार करने पर इस सन्दर्भ में कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं।
आर्जवधर्म और मायाकषाय की उक्त परिभाषाएँ स्वीकार करने पर मार्जवधर्म और मायाकषाय की उपस्थिति मन-वचन-काय वालों के ही मानना होगी, क्योंकि मन-वचन-काय की एकरूपता या विरूपता मन-वचन-काय वालों के ही सम्भव है; जिनके मन-वचनकाय ही नहीं, उनके नहीं। मन-वचन-काय के अभाव में उनमें एकरूपता या विरूपता का प्रश्न ही नहीं उठता।
सिद्धों के मन-वचन-काय का अभाव है, अतः उक्त परिभाषा के अनुसार उनके आर्जवधर्म सम्भव नहीं है, जबकि उनके प्रार्जवधर्म होता है। उनमें आर्जवधर्म की सत्ता शास्त्रसंमत तो है ही, युक्तिसंगत भी है। उत्तमक्षमा, मार्दव, प्रार्जव प्रादि प्रात्मा के धर्म हैं एवं वे प्रात्मा की स्वभाव-पर्यायें भी हैं, उनका-सम्पूर्णधर्मों एवं सम्पूर्ण स्वभाव-पर्यायों से युक्त सिद्ध जीवों में पाया जाना अवश्यम्भावी है, क्योंकि सम्पूर्ण शुद्धता का नाम ही सिद्धपर्याय है।
इसीप्रकार जिनके मन और वाणी नहीं है ऐसे एकेन्द्रियादि जीवों के मायाकषाय मानना सम्भव न होगा; क्योंकि जिनके अकेली काया है, मन और वचन है ही नहीं, उनके मन-वचन-काय की विरूपता अर्थात् मन में और, वचन में और, करे कुछ और वाली बात कैसे घटित होगी?
एक दुकान पर तीन विक्रेता हैं -पृथक-पृथक उन सबसे किसी कपड़े का भाव पूछने पर एक ने पाठ रुपये मीटर, दूसरे ने दस रुपये मीटर एवं तीसरे ने बारह रुपये मीटर बताया, जबकि वह है पाठ रु० मीटर का हो । उक्त स्थिति में तीनों की बातों में विरूपता होने से वे अप्रामाणिक कहे जावेंगे। पाप कहेंगे- क्या लूट मचा रखी है, जितने प्रादमी उतने भाव । पर यदि एक ही विक्रेता हो और वह पाठ रुपये मीटर के कपड़े को बारह रुपये मीटर बतावे तो क्या वह प्रामाणिक हो जावेगा? नहीं, कदापि नहीं। परन्तु एक ही विक्रेता होने से विरूपता दिखाई नहीं देगी। एक में विरूपता कैसी? विरूपता तो अनेक में ही सम्भव है । इसी प्रकार केन्द्रियादि जीवों में