________________
उत्तममा D . वह हमेशा भयाक्रान्त भी बना रहता है। उसे यह भय सदा बना रहता है कि कपट खुल जाने पर उसकी बहुत बुरी हालत होगी, वह महान कप्ट में पड़ जायेगा । बलवानों के साथ किया गया कपटव्यवहार खुलने पर बहुत खतरनाक साबित होता है। खतरा तो कपट खुलने पर होता है, पर खतरे की आशंका से कपटी सदा ही भयाकान्त रहता है। ___सशंकित और भयाक्रान्त व्यक्ति कभी भी निराकुल नहीं हो मकता। उसका चित्त निरन्तर प्राकुल-व्याकुल और प्रशांत रहता है। अशांत-चित्त व्यक्ति कोई भी कार्य सही रूप में एवं सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है, फिर धर्म की साधना और आत्मा की आराधना तो बहुत दूर की बातें हैं।
__ मायाचारी व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता । यहाँ तक कि माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी-पुत्र का भी उस पर से विश्वास उठ जाता है।
यही कारण है कि मायाकषाय का वर्णन करते हुए श्री शुभचन्द्राचार्य ने 'ज्ञानार्गव' के उन्नीसवे सर्ग में लिखा है :
जन्मभूमिरविद्यानामकीर्तेर्वासमन्दिरम् । पापपङ्कमहागर्तो निकृतिः कीर्तिता बुधैः ।।५८।। अर्गलेवापवर्गस्य पदवी श्वभ्रवेश्मनः ।
शोलशालवने वह्निर्मायेयमवगम्यताम् ॥५६।। बुद्धिमान लोग कहते हैं कि माया को इस प्रकार जानो कि वह अविद्या की जन्मभूमि, अपयश का घर, पापरूपी कीचड़ का बड़ा भारी गड्ढा, मुक्ति-द्वार की अर्गला, नरकरूपी घर का द्वार और शीलरूपी शालवक्ष के वन को जलाने के लिए अग्नि है।
मायाकषाय के प्रभाव का नाम ही आर्जवधर्म है।
प्रार्जवधर्म और मायाकषाय की चर्चा जब भी चलती है तब उसे मन-वचन-काय के माध्यम से ही समझा-समझाया जाता है। कहा जाता है कि मन-वचन और काया की एकरूपता ही प्रार्जवधर्म है और इनकी विरूपता ही प्रार्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है । यह उपदेश भी दिया जाना है कि जैमा मन में हो वैमा ही वाणी से कहना चाहिये, तथा जैसा बोला हो वैसा ही करना चाहिये। इसे ही प्रावधर्म बताया जाता है। तथा मन में और, वचन में भोर,