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उत्तमना on मानादि कषायें भूमिकानुसार क्रमश: छूटती हैं, पर उनमें उपादेयबुद्धि एक साथ ही छूट जाती है । इनमें उपादेयबुद्धि छूटे बिना धर्म का प्रारम्भ ही नहीं होता।
___ तो क्या अन्त में यही निष्कर्ष रहा कि क्रोध-मानादि कषायें नहीं करना चाहिए, इन्हें छोड़ देना चाहिये ?
नहीं, कहा था न कि क्रोध-मान छोड़े नहीं जाते हैं, छूट जाते हैं । बहुत से लोग मुझसे कहते हैं कि आप बीमार बहुत पड़ते हैं, जरा कम पड़ा कीजिए न । मैं पूछता हूँ कि क्या मैं बीमार सोच-समझकर पड़ता हूँ- जो कम पड़ा करूँ, अधिक नही । अरे भाई ! मेरा बस चले तो मैं बीमार पड़ ही नहीं।
इसीप्रकार क्या कोई क्रोध-मानादि कषायें सोच-समझकर करता है। अरे ! उमका वश चले तो वह कषाय करे ही नहीं, नयोंकि प्रत्येक समझदार प्रारणी कपायों को बुरा समझता है और यह भी चाहता है कि मैं कपाय करूं ही नहीं, पर उसके चाहने से होता क्या है ? क्रोध-मानादि कपायें हो ही जाती हैं, हो क्या जाती हैं, सदा बनी ही रहती हैं; कभी कम, कभी अधिक ; कभी मंद, कभी तीव्र । अनादिकाल में एक भी अज्ञानी प्रात्मा आज तक कषाय किए बिना एक ममय भी नही रहा । यदि एक बार भी, एक समय को भी कषाय भाव का पूर्णतः अभाव हो जावे तो फिर कपाय हो ही नहीं सकती। ___ अब यह महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर मान क्यों उत्पन्न होता है और मिटे कैसे ? इसकी उत्पत्ति का मूल कारण क्या है और इसका प्रभाव कैसे किया जाय ?
जब तक यह आत्मा परपदार्थों को अपना मानता रहेगा तब तक अनन्तानुवन्धी मान की उत्पत्ति होती ही रहेगी । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि परपदार्थ की उपस्थितिमात्र मान का कारण नहीं है। तिजोरी में लाखों रुपया पड़ा रहता है, पर तिजोरी को मान नहीं होता, उन्हें संभालने वाले मुनीम को भी मान नहीं होता; पर उससे दूर बैठे सेठ को होता है, क्योंकि सेठ उन्हें अपना मानता है ।
सेठ अपने को कपड़ा-मिल का मालिक समझता है। कपड़ामिल छूटने से मान नहीं छूटेगा; क्योंकि राष्ट्रीयकरण हो जाने पर मिल तो छूट जायगा, पर सेठ को मान की जगह दीनता हो जावेगी।