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२० 0 धर्म के दशलक्षण
महात्माओं के अनेक उपदेशों और आदेशों के बावजूद भी प्राणी इनसे बच नहीं पाया। इन कमजोरियों के कारण प्राणियों ने अनेक कष्ट उठाये हैं, उठा रहे हैं, और उठायेंगे। इन से बचने के लिये भी उपाय कम नहीं किये गये, पर बात वहीं की वहीं रही।
जिन विकारों के कारण, जिन कमजोरियों के कारण, जिन कषायों के कारगा प्रागणी सफलता के द्वार तक पहँच कर भी कई बार असफल हमा, मूख-शान्ति के शिखर पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहने पर भी पहुँच नहीं पाया; उन विकारों में, उन कमजोरियों में, उन कषायों में सबसे बड़ा विकार, सबसे बड़ी कमजोरी और सबसे बड़ी कषाय है क्रोध ।
क्रोध आत्मा की एक ऐसी विकृति है, ऐसी कमजोरी है, जिसके कारण उसका विवेक ममाप्त हो जाता है, भले-बुरे को पहिचान नहीं रहनी। जिसपर क्रोध पाता है, क्रोधी उसे भला-बुरा कहने लगता है, गाली देने लगता है, मारने लगता है. यहाँ तक कि स्वयं की जान जोखम में डालकर भी उसका बरा करना चाहता है। यदि कोई हितैपी पूज्य पुरुप भी बीच में आवे तो उसे भी भला-बुग कहने लगता है, माग्ने तक को नैयार हो जाता है। यदि इतने पर भी उमका ग न हो तो स्वय चहत दुखी होता है, अपने ही अंगों का घात करने लगता है, माथा कूटने लगता है, यहाँ तक कि विषादि भक्षगग करके मर तक जाता है।
लोक में जितनी भी हत्याएँ और प्रात्म-हत्याएँ होती है. उनमें से अधिकांश क्रोधावेश में ही होती हैं। क्रोध के समान पात्मा का कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
__ क्रोध करने वाले को जिमपर क्रोध पाता है. वह उसकी ओर ही देखता है, अपनी और नही देखता। कोबी को जिसपर क्रोध आता है, उमी की गलती दिखाई देती है, अपनी नही: चाहे निष्पक्ष विचार करने पर अपनी ही गलती क्यों न निकले । पर क्रोधी विचार करता ही कब है ? यही तो उमका अन्धापन है कि उमकी दृष्टि पर की ओर हो रहती है और वह भी पर में विद्यमान-अविद्यमान दुर्गुणों को ओर हो : गुगों को तो वह देख ही नही पाता । यदि उसे पर के गुण दिखाई दे जावे तो फिर उस पर क्रोध ही क्यों पावे, फिर तो उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी।