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१८ - धर्म के बरालक्षण
जरा विचारिए - ज्ञान का अभाव अज्ञान है या अज्ञान का प्रभाव ज्ञान ? 'ज्ञान' मूल शब्द है, उसमें निषेधवाचक 'अ' लगाकर 'प्रज्ञान' शब्द बना है, अतः स्वतः सिद्ध है कि ज्ञान का अभाव अज्ञान है।
वस्तु का स्वभाव तो धर्म होता ही है, साथ ही स्वभाव के अनुरूप पर्याय को अर्थात् स्वभावपर्याय को भी धर्म कहा जाता है । सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र स्वभावपर्याय होने से ही धर्म हैं। विभाव (विभाव पर्याय) को अधर्म कहते हैं।
ज्ञान आत्मवस्तु का स्वभाव है, अतः धर्म है । सम्यग्ज्ञानपर्याय को भी ज्ञान कहते हैं, अतः सम्यग्ज्ञान भी धर्म है। अज्ञान (मिथ्याज्ञानपर्याय) प्रात्मा का विभाव है, अतः वह अधर्म है। इसीप्रकार क्षमा प्रात्मा का स्वभाव है, अतः वह तो धर्म है ही, साथ ही क्षमास्वभावी प्रात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाली क्षमाभावरूप स्वभावपर्याय भी धर्म है, किन्तु क्षमास्वभावी प्रात्मा जब क्षमास्वभावरूप परिणमन न करके विभावरूप परिणमन करता है, तो उसके उस विभाव परिणमन को क्रोध कहा जाता है।
क्रोध आत्मा का एक विभाव है और वह क्षमा के प्रभावस्वरूप प्रकट हुआ है। यद्यपि वह संतति की अपेक्षा से अनादि का है तथापि प्रति समय नया-नया उत्पन्न होता है, अतः सत्य तो यह है कि क्षमा का प्रभाव क्रोध है, पर कहा यह जाता है कि क्रोध का प्रभाव क्षमा है। इसका कारण यह है कि अनादि से यह आत्मा कभी भी क्षमादि स्वभावरूप परिणमित नहीं हया, क्रोधादि विकाररूप ही परिणमित हा है, और जब भी क्षमादि स्वभावरूप परिणमित होता है तो क्रोधादि का अभाव हो जाता है। अत: क्रोधादि का अभावपूर्वक क्षमादिरूप परिणमन देखकर उक्त कथन किया जाता है।
यदि ज्ञान के समान ही इसका प्रयोग अपेक्षित हो तो वह इस प्रकार किया जा सकता है :-ज्ञान का प्रभाव अज्ञान, क्षमा का अभाव अक्षमा (क्रोध), मार्दव का अभाव अमार्दव (मान), आर्जव का अभाव अनार्जव (मायाचार-छल कपट) आदि । ____ जब कोई यह नहीं कहता कि अज्ञान मत करो, पर यही कहा जाता है कि ज्ञान करो; तब क्रोध मत करो के स्थान पर क्षमा धारण करो, क्यों नहीं कहा जाता? इसका भी कारण है, और वह यह कि हम क्रोध, मान, माया आदि से परिचित हैं; वे हमारे नित्य