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धर्म के दशलक्षरण
प्रस्तुत कर धर्म, मनोविज्ञान और साहित्य का सुन्दर समन्वय किया | लेखक शास्त्रीय संवेदन के धरातल से प्रेरित होकर अपनी बात अवश्य कहता है, पर वह उसकी मढ़िवादिता व गतानुगतिकता से ऊपर उठकर धर्म की प्रगतिशीलता एवं मनस्तत्त्वता को रेखांकित करता हुआ उसे शाश्वत जीवनमूल्य के रूप में व्याख्यानित करता है । मारिल्लजी की यह दृष्टि पुस्तक को मूल्यवत्ता प्रदान करती है । हार्दिक बधाई ! - नरेन्द्र भानावत * डॉ० हीरालालजी माहेश्वरी, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर डॉ० हुकमचन्दजी भारिल्ल द्वारा लिखित 'धर्म के दशलक्षरण' पुस्तक पढ़कर अतीव प्रसन्नता हुई। जैनधर्म-प्रेमियों के लिए विशेषतः श्रौर अध्यात्मप्रेमियों के लिए सामान्यतः यह पुस्तक प्रत्यन्त उपादेय प्रौर विचारोत्तेजक है । * श्री उदयचन्द्रजी जैन, प्राध्यापक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ( उ०प्र०) ...पुस्तक का बाह्य रूप जितना प्राकर्षक है उसका आभ्यन्तर रूप मी उससे अधिक आकर्षक है । इसमे संदेह नहीं कि पुस्तक प्रत्यन्त उपयोगी श्रीर सारगर्भित है । इसमें धर्म के उत्तमक्षमादि दशलक्षरणों का मार्मिक, तात्त्विक और व्यावहारिक विवेचन किया गया है । भाव, भाषा, शैली भादि सभी दृष्टियों से पुस्तक उपादेय तथा पठनीय है । धर्म का वास्तविक स्वरूप समझने के लिए प्रत्येक श्रावक को इसका अध्ययन, मनन श्रीर चिन्तन अवश्य करना चाहिए | डॉ० भारिल्ल उच्चकोटि के लेखक और वक्ता है - उदयचन्द्र जैन * प्रो० प्रवीरणचंद्रजी जैन, निदेशक, उच्चस्तरीय अध्ययन अनुसंधान केन्द्र, जयपुर डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल एक प्रबुद्ध श्रात्माभिमुख व्यक्तित्व है । उनकी वाणी में प्रोज और शब्दो मे ऋजुता है । उनकी लेखनी से प्रसूत 'धर्म के दशलक्षरण' नामक कृति इस ओर प्रवृत्त मानवो को तो अज्ञानमूलक रूढ़ियो से हटाकर आत्मविभोर करेगी ही, साधारण जन भी जिन्हे बहिर्मुख कहा या समझा जाता है यदि इसे एक बार श्राद्योपान्त पढ़ जाएँ तो निश्चय ही उनकी बहिर्मुखता प्रन्तर्मुखता की ओर गतिशील हो सकेगी। डॉ० भारिल्ल को इस बहुमूल्य रचना के लिए धन्यवाद प्रर्पित करते हुए मैं चाहता हूँ कि यह कृति जन-जन के हाथो मे पहुँचे और इसके अध्ययन से उनका जीवन सार्थक हो । जब ये लेख 'प्रात्मधर्म' में प्रकाशित हो रहे थे तो मेरे मन मे प्राता था कि ये लेख पुस्तकाकार में प्रकाशित हो जाएँ । मनचीता हो गया । - प्रवीणचंद्र जैन ★ श्री भरतचक्रवर्ती जैन, शास्त्री, न्यायतीर्थ, मद्रास, प्र० सं० 'प्रात्मधर्म (तमिल) ' ........इसमें निश्चय और व्यवहार का सामंजस्य करके दशों धर्मों का वर्णन किया है, जिसकी प्रावश्यकता वर्त्तमान समाज के लिए बड़ी जरूरी थी । लेखक महाशय ने अपनी कृति में विस्तृत सरल लौकिक उदाहरणों द्वारा
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