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उत्तमत्याग १२६
आत्मार्थियों को दिया गया मारमाहतकारी तत्त्वोपदेश एवं शास्त्रादि लिखना-लिखाना, घर-घर तक पहुँचाना आदि ज्ञानदान; शुभभावरूप होने से पुण्यबंध के कारण हैं ।
ज्ञानी जीवों को अपनी शक्ति एवं भूमिकानुसार उक्त दानों को देने का भाव अवश्य आता है, वे दान देते भी खूब हैं; किन्तु उसे त्यागधर्म नहीं मानते नहीं जानते। त्यागधर्मं भी ज्ञानी श्रावकों के भूमिकानुसार अवश्य होता है और वे उसे ही वास्तविक त्यागधर्म मानते - जानते हैं ।
यशादि के लोभ से दान देने वालों की ग्रालोचना सुनकर दान नहीं देने वालों को प्रसन्न होने की आवश्यकता नही है । नहीं देने से तो देना अच्छा ही है, मान के लिए ही सही; उनके देने से उन्हें भले ही उसका लाभ न मिले, पर तत्त्वप्रचार आदि का कार्य तो होता ही है । यह बात अलग है कि वह वास्तविक दान नहीं है । अतः दान का सही स्वरूप समझकर हमें अपनी शक्ति और योग्यतानुसार दान तो अवश्य ही करना चाहिए |
दान देने की प्रेरणा देते हुए प्राचार्य पद्मनन्दी ने लिखा है सत्पात्रेषु यथाशक्ति, दान देयं गृहस्थितैः । दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता ।। ३१ ।। १ गृहस्थ श्रावकों को शक्ति के अनुसार उत्तम पात्रों के लिए दान अवश्य देना चाहिए, क्योंकि दान के बिना उनका गृहस्थाश्रम निष्फल ही होता है ।
खुरचन प्राप्त होनेपर कौमा भी उसे अकेले नहीं खाता, बल्कि अन्य साथियों को बुलाकर खाता है । अतः यदि प्राप्त धन का उपयोग धार्मिक और सामाजिक कार्यों में न करके उसे अकेले अपने भोग में ही लगायेगा तो यह मानव कौए से भी गया बीता माना जायगा । यहाँ जो बात कही जा रही है वह दान की हीनता या निषेधरूप नहीं है । किन्तु त्याग और दान में क्या अन्तर है - यह स्पष्ट किया जा रहा है ।
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दान की यह आवश्यक शर्त है कि जो देना है, जितना देना है, वह कम से कम उतना देने वाले के पास अवश्य होना चाहिए; अन्यथा देगा क्या और कहाँ से देगा ? पर त्याग में ऐसा नहीं है । जो 'वस्तु हमारे पास नहीं है, उसको भी त्यागा जा सकता है । उसे मैं प्राप्त करने का यत्न नहीं करूंगा, सहज में प्राप्त हो जाने पर भी पंचविशतिका : उपासकसंस्कार, श्लोक ३१
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