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उत्तमत्याग 0 १२३
कुछ वस्तुऐं ऐसी हैं जिनका त्याग होता है, दान नहीं। कुछ ऐमी हैं जिनका दान होता है, त्याग नहीं। कुछ ऐसी भी हैं जिनका दान भी होता है और त्याग भी। जैसे - राग-द्वेष, मां-बाप, स्त्रीपुत्रादि को छोड़ा जा सकता है, उनका दान नहीं दिया जा सकता; ज्ञान और अभय का दान दिया जा सकता है, पर वे त्यागे नहीं जाते; तथा औषधि, आहार, रुपया-पैमा आदि का त्याग भी हो सकता है और दान भी दिया जा सकता है।
शास्त्रों में कहीं-कहीं त्याग और दान शब्दों का एक अर्थ में भी प्रयोग हुआ है । इस कारण भी इन दोनों के एकार्थवाची होने के भ्रम फैलने में बहुत कुछ सहायता मिली है । शास्त्रों में जहां इसप्रकार के प्रयोग हैं वहां वे इस अर्थ में हैं -निश्चयदान अर्थात् त्याग और व्यवहारत्याग अर्थात् दान । जब वे दान कहते हैं तो उसका अर्थ सिर्फ दान होता है और जब निश्चयदान कहते हैं तो उसका अर्थ त्यागधर्म होता है । इसीप्रकार जब वे त्याग कहते हैं तो उसका अर्थ त्यागधर्म होता है और जब व्यवहारत्याग कहते हैं तो उसका अर्थ दान होता है ।
इसप्रकार का प्रयोग दशलक्षण पूजन में भी हुआ है। उसमें कहा है :
उत्तम त्याग कह्यो जग साग, औषधि शास्त्र अभय आहारा। निश्चय गग-द्वेष निरवारे, ज्ञाना दोनों दान संभारे ।।
यहां ऊपर की पंक्ति में जहा उत्तम त्यागधर्म को जगत में माग्भूत बनाना गया है वही साथ में उसके चार भेद भी गिना दिये जो कि वस्तुतः चार प्रकार के दान हैं और जिनकी विस्तार से चर्चा की जा चुकी है। ___ अब प्रश्न उठता है कि ये चार दान क्या त्यागधर्म के भेद हैं ? पर नीचे की पंक्ति पढ़ते ही सारी बात स्पष्ट हो जाती है । नीचे की पंक्ति में साफ-साफ लिखा है कि निश्चयत्याग तो राग-द्वेष का अभाव करना है । यद्यपि ऊपर की पंक्ति में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं है, तथापि नीचे की पंक्ति में निश्चय का प्रयोग होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊपर जो बात है वह व्यवहारत्याग अर्थात् दान की है। आगे और भी स्पष्ट है कि 'ज्ञाता दोनों दान संभारे' अर्थात ज्ञानी आत्मा निश्चय और व्यवहार दोनों को सम्भालता है। दोनों दान' शब्द सब कुछ स्पष्ट कर देता है।