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उत्तमतप 0 १०७ मैं यह नहीं कहता कि माता-पिता की विनय नहीं करना चाहिए । माता-पिता आदि गुरुजनो की यथायोग्य विनय तो की ही जानी चाहिए। मेरा कहना तो यह है कि माता-पिता की विनय, विनयतप नहीं है। क्योंकि तप मनियो के होता है और मुनि बनने के पहले ही माता-पिता का त्याग हो जाता है ।
माता-पिता आदि की विनय लौकिक विनय है और विनयतप में अलौकिक अर्थात् धार्मिक-आध्यात्मिक विनय की बात आती है ।
विनयतप चाहे जहाँ माथा टेक देने वाले तथाकथित दीन गृहस्थों के नहीं, पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त कहीं भी नहीं नमने वाले मुनिराजों के होता है।
विना विचारे जहाँ-तहाँ नमने का नाम विनयतप नहीं, वैनेयिकमिथ्यात्व है। विनय अपने-ग्राप में अत्यन्त महान आत्मिक दशा है। मही जगह होने पर जहाँ वह तप का रूप धारण कर लेती है, वहीं गलत जगह की गई विनय अनंत ससार का कारण बनती है।
विनय मबसे बड़ा धर्म, मवमे बड़ा पुण्य, एवं सबसे बड़ा पाप भी है । विनय तप के रूप में सबसे बड़ा धर्म, सोलहकारण भावनाओं में विनयमम्पन्नता के रूप में तीर्यकर प्रकृति के बंध का कारण होने से सबसे बड़ा पुण्य, और विनयमिथ्यात्व के रूप में अनंत ससार का कारण होने से सबसे बड़ा पाप है।
विनय के प्रयोग में अत्यन्त सावधानी आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि पाप जिसे विनयतप समझकर कर रहे हों, वह विनयमिथ्यात्व हो। इसका ध्यान रखिए कि कहीं आप विनयतप या विनयसम्पन्नता भावना के नाम पर विनयामथ्यात्व का पोपण कर अनंत मंसार तो नहीं बढ़ा रहे हैं ?
विनय का यदि सही स्थान पर प्रयोग हुअा नो तप होने से कर्म को काटेगी, किन्तु गलत स्थान पर प्रयुक्त विनय मिथ्यात्व होने से धर्म को ही काट देती है। यह एक ऐसी तलवार है जो चलाई तो अपने माथे पर जाती है और काटती है शत्रुनों के माथों को, पर सही प्रयोग हुआ तो। यदि गलत प्रयोग हुआ तो अपना माथा भी काट सकती है । अतः इसका प्रयोग अत्यन्त सावधानी से किया जाना चाहिए।