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उत्तमतप १.५ पर भी प्रधपेट रह जा' में-बीच में ही भोजन छोड़ देने में इच्छा का निरोध अधिक है।
इसीप्रकार भोजन को जाना ही नहीं अलग बात है, किन्तु जाकर भी अटपटे नियमों के अनुसार भोजन न मिलने पर भोजन नहीं करना अलग बात है। उससे इसमें इच्छा-निरोध अधिक है। तथा सरस भोजन की प्राप्ति होने पर भी नीरस भोजन करना- उससे भी अधिक इच्छा निरोष की कसौटी है।
__ अनशन में इच्छाओं की अपेक्षा पेट का निरोध अधिक है। ऊनोदरादि में क्रमश: पेट के निरोध की अपेक्षा इच्छामों का निरोष अधिक है। अतः अनशनादि की अपेक्षा आगे-आगे के तप अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। हमने पेट के काटने को तप मान लिया है जबकि आचार्यों ने इच्छाओं के काटने को तप कहा है।
उक्त तपों में शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुये रसनेन्द्रिय पर पूरा-पूरा अनुशासन रखा गया है। उन्होंने जीवन भर किसी रस विशेष का त्याग करने की अपेक्षा बदल-बदल कर रसों के त्याग पर बल दिया। रविवार को नमक नहीं खाना, बुधवार को घी नहीं खाना आदि रसियों की कल्पना में यही भावना काम करती है। एक रस छह दिन खाने और एक दिन नहीं खाने से शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों की कमी भी नहीं होगी और स्वाद की प्रमुखता भी समाप्त हो जावेगी।
कोई व्यक्ति यदि जीवन भर को नमक या घी छोड़ देता है तो प्रारम्भ के कुछ दिनों तक तो उसे भोजन बेस्वाद लगेगा, परन्तु बाद में उसी भोजन में स्वाद पाने लगेगा; शरीर में उस तत्त्व की कमी हो जाने से स्वास्थ्य में गड़बड़ी हो सकती है। किन्तु छह दिन खाने के बाद यदि एक दिन घी या नमक न भी खावे तो शारीरिक क्षति बिल्कुल न होगी और भोजन बेस्वाद हो जावेगा; अतः रसना पर अंकुश रहेगा।
एक मुनिराज ने एक माह का उपवास किया। फिर माहार को निकले । निरंतराय पाहार मिल जाने पर भी एक ग्रास भोजन लेकर वापिस चले गये। फिर एक माह का उपवास कर लिया। यह ऊनोदर का उत्कृष्ट उदाहरण है।