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ही श्री आदिनाथ जिने दायका म वाताविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामती स्वाहा सुरहितपकवान सुंदर सद्यविविधिवना यही दीप्तिरस धरस्वर्णभाजन लषैमन ललचा यही सोकधाभंजन रसनिरं
जन- चारु चरु चषिप्रेयही आदिनाथ जिनेंद्र के युग चर रस-चर-चौंधे यही ही नैवेद्यं त्रिलोक केन त्पाद वैधौवास मिएक लखा यही सममोहप टल विलाय ज्यों धनप बनतैन