________________
भवभावना प्रकरण
नाओ सयलोऽवि हु एस वइयरो चुन्नए तओ नियए। पाए एककुसीए भणइ य सयणाण गेहम्मि ॥१६॥ प्रमत्तएएहिं अहं नीओ चुकविओ तत्तियस्स लाभस्स । इय पलवंतो नीओ बंधेउं रायपुरिसेहिं ॥१७॥
पुरुषस्य आरोविओ य सूलाइ तो इमो नरवरस्त भणिएण। हक्कारिउण पुट्ठो जिणदासो चिय नरिंदेण ॥१८॥ पंचेकिं कुसया न हु गहिया तुमए ? सो आह इत्थ परिमाणं ।
न्द्रियाणां लंघइ एवं काणकयस्स नियममि भंगो य ॥१९॥
विनाशजायइ मह देव ! तओ पडिसिद्धा ते कुस त्ति नरनाहो | तुट्ठो एवं सोउं सम्माणइ वत्थमाईहिं ॥२०॥
कत्वम् भंडारं च समप्पइ निययं सयलं पि निच्छए सोय । मन्नाबिऊण कट्टेण गाहिओ तहवि तरन्ना ॥२१, नंदो वि पसिद्धो लोभनन्दनामेण गाढलुद्धो त्ति । इय लोभीण निरीहाण अंतरं चिंतसु सया वि ॥२२॥
॥ इति लोभनन्दाख्यानकं समाप्तम् ॥ तदेवं क्रोधादिकषायाणामाश्रवद्वारत्वे दर्शितान्युदाहरणानि, न तु रागद्वेषयोः, तत्त्वतः कषाया- ५ त्मकत्वात्तयोगतार्थत्वादिति । अथेन्द्रियाणामाश्रवद्वारत्वमुपदर्शयन्नाह
होंति पमत्तस्स विणासगाणि पंचिंदियाणि पुरिसस्स। . उरगा इव उग्गविसा गहिया मंतोसहीहिं विणा ॥४३६॥