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भव-
अकामनिर्जरया
भावना
प्रकरण
देवत्व
प्राप्तौ जम्बूकस्य कथा
अप्पडिकम्मसरीरो तओसहं सो करेइ न कया वि । तो तीए पुच्छिऊणं वेजे मेलाविओ चुन्नो ॥३५॥ अह भिक्खायरियाए मुणिस्स तस्साऽऽगयस्स भत्तम्मि | मीलेऊणं दिन्नो चुन्नो तेणावि अरिसाओ ॥३६ तु पडियाओ ओसहविसयं तओ मुणेऊणं । अहिगरणं सो साह भत्तं पचक्खई सव्वं ॥३७॥ एत्तो सियालदेवो उवविढे अणसणे तयं दटुं। आगच्छइ सरिऊणं वेरं पुब्विल्लयं तत्थ ॥३८॥ तत्तो सियालिमेगं विउवि डिंभसंजुयं एसो । खाएइ खिंक्खियंतो तं साहं जणियगुरुवियणं ॥३९॥ तत्तो नरवइसेन्नं रक्खइ उग्गिण्णपहरणं साहं । देवोऽवि खणं दीसइ खणं न दीसइ पुणो एइ ॥४०॥ एवं ताव सपेल्लयसियालिरूवेण भक्खिओ साह । जाव गओ दियलोयं सम्म अहियासिउं वियणं ॥४१ एत्थ य अकामनिजरवण देवत्तणं सियालेण । पत्तं एत्तियमेत्तं उवजजइ सेसयं तु पुणो ॥४२॥
कहियं पसंगओ च्चिय रोगो अहियासिओ जहा इमिणा । दिचुवसग्गो य तहा अन्नेणऽवि होइ सहियब्चो ॥४३॥
॥ इति जम्बूकाख्यानकं समाप्तम् ॥
॥ २९८ ॥