________________
भव- भावना प्रकरण
धनदश्रेष्ठि गृहे पुत्रजन्म पुत्रनाशश्च
हरिसुत्तालपहोलिरथणवदरखलंततुहारलओ । रमणीयणोऽवि नच्चइ ऊसियभुयरणिरमणिवलओ ॥१४६॥ जियकलकंठरवाओ गायंति मणोहरं अविवाओ । पविसंति पाउलाई कयसुहयरनगेयाइं ॥१४७॥ S अंगणसंठवियसुवन्नपुन्नकलसेहिं रुद्धसंचारो । दारडिओ पहिट्ठो सवणसुहं पढइ बंदियणो ॥१४८॥ दिजंति महादाणाई तत्थ खजति विविहखज्जाई । पिजंति पाणयाई संमाणिज्जति विद्धजणा ॥१४९॥ मणिकणयसिंगियाहिं छंटिजइ कुंकुमेण सयलजणो । कुसुमविलेवणतंबोलपउरवत्थाई दिजंति ॥१५०॥
तह तस्स घरे सब्बो हरिसपसत्तो जणो परिब्भमइ ।
अप्पाणयं पि न जहा मुणेइ जाओ अणप्पवसो ॥१५१॥ तह दट्टणं रन्ना पुढे किं हरिसकारणं एत्थं ? । कहियं केणइ कल्लम्मि देव ! पुत्तो इहं जाओ ॥१५२॥ इय सोऊणं राया बाहिं काऊण आसवाणियं । नयरुजाणसिरिं चिय जा दट्टणं पडिनियत्तो ॥१५३॥ ता पेच्छइ तम्मि घरे सो चिय लाओ महंतसद्देणं । रोयइ करुणसरेणं हा हा किमियं ति जपंतो? ॥ वच्छत्थलाई पिइ विलवइ. मुच्छइ पडेइ उट्ठइ य । ताडइ सीसे तोडेइ भूसणे फाडए पोत्ते ॥१५५॥ इय गहगहियदेहं परब्वसं तं जणं निएऊण । विम्यिहियओ राया पुच्छइ हा! किमिह जायं ति? ॥ अह केणइ विन्नत्तं देव ! अपुत्तस्स धणयसेट्टिस्स । जो उप्पन्नो पुत्तो कहं पि ओवाइयसएहिं ॥१५७॥
॥ २४८॥