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भवभावना प्रकरण
शूकरत्वे उत्पन्नस्य पूर्वभव
पितुः
मांसखादकस्य सूरराज
अह सो पभणइ भजं पिए ! अदाया इमो महीवालो ।
ता चिट्ठ इमंमि तुमं गच्छामि अहं अउज्झाए ॥५॥ तो सा भणइ न एवं तत्थ गओ जेण अन्नमहिलासु । रत्तो मं विम्हरिहिसि ता जुगवं तत्थ वच्चामो॥ पत्तिजावंती वि हु तो जा कहमवि न पत्तियइ एसा । कुलदेवया इमेणं विणएणाऽऽराहिया तत्तो ॥७॥ पचक्खाए होउं तीए दिवाण सुरभिगंधाण | कुसुमाण चउसरं ताण अप्पियं एकमेकंति ॥८॥ भणियं सीसे बंधह जस्स मिलायंतिमाइं कुसुमाई । सो जाणिजउ इयरं अन्नासत्तं तहिं जायं ॥९॥
इय देवयविहिए पचयम्मि मोक्कल्लिओ पिओ तीए । तेण वि वरधवलहरं गुत्तं एक तहिं घे ॥१०॥ • मुक्का सदासचेडी एसा असणाइनिव्वुई काउं । पत्तो य अउज्झाए सयं निवेणं तहिं दिहो ॥११॥
अइगोरवेण दिन्नं विउलं दविणं च चिट्ठइ सुहेणं । ओलग्गंतो नरवरमिटुं वत्थाइयं पवरं ॥१२॥ भजाए संपेसइ अहऽन्नया सव्वहा वि कुसुमाई । तुट्टाई न अत्थेण वि कत्थइ लब्भंति तो रन्ना ॥१३॥ सन्निहियनरा पुट्ठा कत्थई दीसंति किमिह कुसुमाइं? | तो ते भणंति अन्नत्य देव ! कत्थइ न दीसंति ॥ किंतु कुओऽवि हु एसो अमिलाणेहिं सुयंधकुसुमेहिं । दीसह बद्धेहिं सिरे निचं पि हु सूरराउत्तो ॥१५॥ तो तवइयरमेसो पुट्ठो रन्ना इमेण वि समग्गं । कहियं जहट्टियं चिय तो विम्हइओ नरवरिंदो ॥१६॥
पुत्रस्य
कथा
॥१८४॥