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वहार० ॥१७॥
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मूळपाठ ॥ २३ ॥ परिहार कप्पट्ठिए भिकखू बहिया थेराणं वेयावमियाए गच्छेजा. थेरा
य नो सरेजा, कप्प से निविसमाणस्स एगराश्याए पडिमाए जसं जम दिसि अन्ने साहम्मिया विहरन्ति तमं तमं दिसं उवलित्तए. नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए. तंसि च ण कारणंसि निट्ठियंसि परोवएजा। वसाह अजो एगरायं वा दुरायं वा. एवं से कप्पइ एगरायं वा पुरायं वा वस्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए. जं तत्थ परं एगरायाओ वा पुरायाओ वा वसइ, से सन्तरा
छेए वा परिहारे वा ॥ २३ ॥ भावार्थ ॥ २३ ॥ प्रायश्चित रुप कल्प समाचारीने विषे रह्यो होय ते साधु बाहरला गामादिकने विषे स्थिवरादिक रह्या छेतेनी वैयावचने काजे जाय ते वारे विद्या निमित्ते पड उत्तर करतां थका तथा घणी जातना संदेशा शिष्यने कहेता थकां गुर्वादिक आचार्य आकुळ व्याकुळ थया तेवारे ते आचार्यने सांभब्यु नही जे परिहार तप मुकीने साधु बहार जाय छे ते बारे ते परिहार तप बहेतो जाय ते साधुने एक रात्री (अभिग्रह ) प्रतिज्ञा करीने जावं कल्पे. ते कयां जाय ते कहे छे. जे जे दिशाने विषे अनेरा साधर्मिक साधु विचरता होय ते दिशाने विषे जाय, बळी त्यां सुंदर आहार उपधि वस्त्र आदी देखीने
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