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मूळपाठ ॥ २६ ॥ दो भिक्खुणो एगययो' विहरन्ति, नो पहं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंप
जित्ताणं विहारित्तए. कप्पर पहं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपजिताणं
विहरित्तए ॥ २६ ॥ भावार्थ ॥ २६ ॥ वे साधु साथै विचरता थका सरखाए वढेराने माहोमांहि वंदणा कर्या विना रहेवं कल्पे नहि. लघुए चडेराने मांदोमांहि बंदणादिक करीने माहोमांहि एकेकने वढापणे अंगीकार करीने विचर, कल्पे ॥ २६ ॥ उपर सामान्य साधु आधी कपु. हवे गणावच्छेदक आश्री कहे छे ।
अर्थ ॥ २७ ॥ दो वे । ग० गणावच्छेदक । ए० एकठा । वि० विचरे छे । नो० नहिं । ण्हं० वळी । क० कल्पे एकवीजाने वढेरो कर्या विना । अ० माहोमांहि । उ० अंगीकार करी । वि० विचरवू न कल्पे। क. कल्पे । हं० वळी । अ० लघुए । रा० मोटा वडेराने । अ० माहोमांही एकेकने वडापणे । उ० अंगीकार करीने । वि० विचर, कल्पे ॥ २७ ॥ मृळपाठ ॥ २७ ॥ दो गणावलेइया एगययो विहरन्ति, नो एहं कप्पइ अन्नमन्नं उवसं
पजित्ताणं विहरित्तए. कप्पइ एहं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपत्तिाणं
विहरित्तए ॥ २७ ॥ १r. H (टी. एचमां ) एगओ. २ H always ( एचमां हमेशां) आहा.
-ॐनमल
-EASE