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श्रीउपदेशपदे
॥ ३३६ ॥
रायाउरो जाओ ॥ ३९ ॥ ण तहा दिट्ठसरूवे रज्जति जणा जणे गुणडेवि । जह निग्गुणेवि परवयणवन्निए जयट्टिई एसा ॥ ४० ॥ होंति वि धम्मबुद्धी अधम्मबुद्धी खणेण सो जाओ । कस्स व विवरीयत्तं ण होइ मयणेण मूढस्स ॥ ४१ ॥ गत्तो कुलममलं मइलिज्जइ दहइ अन्नओ मयणो । दुत्तडिवग्घंतरसंठिओब दुहिओ तओ जाओ ॥ ४२ ॥ कुवियप्पलहरिहरंत एणं चिंतामहण्णवुच्छंगे । आसासदीवभुओ लद्धो तेणेरिसोवाओ ॥ ४३ ॥ पच्चाइयपउरजणं दोसं उप्पाऊण सेवो । गिहामि बला ताओ न होमि गरहारिहो जेण ॥ ४४ ॥ इय निच्छिऊण पच्छण्णमेव भणिओ पुरोहिओ तेण । विणयंधरेण सद्धिं कुण मेत्तिं कवडनेहेण ॥ ४५ ॥ तत्तोवि भुज्जखंडे एवं गाहं लहुं लिहावित्ता । पच्छण्णमेव मज्झं Haridr ॥ ४६ ॥ सा पुण ॥ पसयच्छि ! रइवियक्खणि ! अज्ज अभवस्स तुह विओगे मे । सा राई च उजामा जामसहस्व वोलीणा ॥ ४७ ॥ बडुएण तहेव कए रण्णा पउराण पेसियं भुज्जं । किर देविगंधपुडए पहियं विणधरेयं ॥ ४८ ॥ ता भो लिवीपरिच्छं काऊण विणिच्छयं कहह मज्झ । मा पच्छावि भणीहह अजुत्तमेयं कयं रण्णा ॥ ४९ ॥ तेहिवि न हुंति दुद्धे पूयरया तहवि सासणं पहुणो । कायवंति भणंतेहिं लिवीपरिच्छा कया हत्थं ॥ ५० ॥ द लिविसंवायं भणियं पउरेण सुड्ड सुविसायं । अस्थि लिवीसंवाओ नय घडइ इमं तु एयाओ ॥ ५१ ॥ अविय ॥ जो चर मणभिरामे दक्खारामे सुहं विगयसंको । सो कंटहयसरीरे करी करीरे नहि रमाइ ॥ ५२॥ अविय ॥ जो चेट्ठइ गोट्ठीए मुहुत्तमेत्तंपि तस्स धण्णस्स । वंजुलसंगेण विसंव पण्णगो मुयइ सो पावं ॥ ५३ ॥ ता परिभावउ देवो सम्मं परमत्थमेत्थ वत्थुम्मि । अघडंतयंपि घडियं एवं पिसुणेण केणावि ॥ ५४ ॥ सच्छंपि फलिहरयणं उवहाणवसा कलिज्जए कालं । इय
रतिसुन्दर्यादीनामु
त्तरभव
वर्णनम् -
॥ ३३६ ॥