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श्रीउपदेशपदे ॥ ३३० ॥
सकयउवभोगे १ ॥ ९० ॥ जुत्तं च नायतत्तस्सं जंतुणो सुकयसाहणं निययं । जत्तो जायइ जम्मंतरम्मि नहु दुस्सहं दुक्खं ॥ ९१ ॥ सोऊण तयणुसद्धिं जंपर इयरोवि मुक्कनीसासं । नियदुच्चरियं मोतुं न मज्झ दुहकारणं अन्नं ॥ ९२ ॥ तं मह दढं खुदुक्खं हिययगयं निसियनट्ठसल्लव । जं खित्तो सि गभीरे समुद्दतीरे तुमं तइया ॥ ९३ ॥ तं दहइ अविस्सामं हिययगयं उस्सुयंव जलमाणं । जं अहिलसिया एसा महासई कूरचरिएण ॥ ९४ ॥ पत्तं पावस्स फलं अचिरेण मए इहेव जम्मम्मि । अइपावोत्ति य काउं नीओम्हि न पेयवइणावि ॥ ९५ ॥ अहवा डज्झउ निहुय निद्धूमं फुंफुमध चिरमेसो । इय भाविऊण विहिणा धरिओऽहं पावभरिओवि ॥ ९६ ॥ जत्तियमेत्तं मेत्तय ! तुरियं संचरसि कारणे मज्झ । तत्तियमेत्तं अणुतावपावए खिवसि मं अहियं ॥ ९७ ॥ इय विविहं पलवंतो भणिओ सो रिद्धिसुंदरीएवि । धन्नो सि जेण पावे पच्छायावं वहसि एवं ॥९८॥ जं काऊणवि पावं पावा पार्वति परमपरिओसं । धीरा न कुणते च्चिय कएवि अणुताविणो दुक्खं ॥ ९९ ॥ को वा तुहेत्थ दोसो अन्नाणवियंमियं खु तं सबं । अंधस्स कूवपडणे को देइ बुहो ज्वालंभं ? ॥ १०० ॥ ता उज्झसु अण्णाणं लग्गसु मग्गम्मि सुद्धपण्णाणं । कुण आयहिए बुद्धिं धरेहि निच्चं मणविद्धिं ॥ १०१ ॥ रक्खेहि सुकयवित्तं पंचेंदियतक्करेहिं हीरंतं । मा दालिद्ददुहत्तो सोयइहिसि कुजोणि संपत्तो ॥ १०२ ॥ जं पेच्छियावि पुरिसा मायण्हियमोहिया कुरंगोब । अलियसुहासानडिया पडंति वयणे कयंतस्स ॥ १०३ ॥ वरमिह विसमुवभोत्तुं वरं पविङ्कं जलंतजलणम्मि । नय इंदियवसयाणं जत्थ व तत्थ व मणं काउं ॥ १०४ ॥ मायंगमीणपन्नगपयंगसारंगपमुहसत्तोहा । इंदियवसेण मूढा लहंति वहवंधमरणाई ॥ १०५ ॥ मणुयावि पेच्छ निच्चंपि दुत्थिया इंदियत्थवित्थारं । पेच्छंता पत्थिवपत्थिणाइणा गणु
ऋद्धिसुन्दरीचरितम् -
॥ ३३० ॥