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श्री उपदेशपदे
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विरहकरो ॥ १०६ ॥ तत्तो सुहपासुत्तं तं मोतुं उद्विऊण सेज्जाओ । मरणाउ विमुको वायसोब सो ताउ गेहाओ ॥ १०७॥ दूरं पलाइओ सावि तक्खणं विहियदिपामोक्खा । सागरमपासमाणी पवइया सबओ नियइ ॥ १०८ ॥ वासघरस्स दुवारं विहालियं पासई मलक्खमणा । करयलपल्हत्थमुही विच्छायतणू विचिंतेइ ॥ १०९ ॥ न मए कओ अविणओ ण यावि एएण बंधवजणेण । ता कत्तो मम दोहग्गदोसओ दूरगो जाओ ॥ ११० ॥ एवं झियायमाणा रुयमाणा विस्सरं विलवमाणा । मुम्मुरगयब कहकहवि रयणिसेसं परिगमेइ ॥ १११ ॥ रयणीए पभायाए चेडिं सद्दाविडं भणइ जणणी । गच्छ वहूरमुहधोवणियं खिप्पं उवणमेहि ॥ ११२ ॥ सोमालियासमीवे वासघरे सावि गच्छई जाव । पेच्छइ विलक्खदिट्ठि मम्मि तं किंचि चिंतंतिं ॥ ११३ ॥ पुट्ठा कीस झियायसि तुमेवमिहिं भणाइ सा भद्द ! । सो सागरओ सुत्तं मं मोतुं कथ गति ॥ ११४ ॥ सा उवलद्धवइयरा जणयाणं साहए जहावुत्तं । तो कोवमिसमिसंतो तज्जणओ सागरस्सुवरिं ॥ ११५ ॥ गच्छइ जिणदत्तगिहं भणाइ हंभो ! किमेवमुचियंति । पुत्तस्स, जो अदोसं सहसा सोमालियं मुयइ ॥ ११६ ॥ नेयं कुलाणुरूवं न पत्तकालं न चैव जुत्तंपि । सुकुलीणाण जणाणं जं विहियं सागरेणज्ज ॥ ११७ ॥ एवं बहूवलंभे अइनिप्पिहमाणसो चिरं दाउं । जा चिट्ठइ एगंते ता सागरमाह इय जणगो ॥ ११८ ॥ दुट्ठ तए पुत्त ! कथं घरजामापयं पवजित्ता । सागरदत्तस्स गिहाउ निग्गओ जमिहमायाओ ॥ ११९ ॥ भणइ तओ सागरओ पियरमहं गिरिसिराउ पडणं व । सलिलपवेसं व विसस्स भक्खणं वा करिस्सामि ॥ १२० ॥ ण उणो सागरदत्तस्स मंदिरे इह भवे पविसामि । सुकुमालियत्ति णामेण चैव सा ताय ! विक्खाया ॥ १२१ ॥ जं तक्करफासेवि हु दाहजरो दारुणो महं जाओ ।
नागश्रीगर्भितधर्मरु
चिचरि
त्रम्
॥ ३०१ ॥