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गजी हरण हेसारवो गरुओ ॥ ८२ ॥ घेतून करी कलसं अहिसिंचिय नेइ निययखंधम्मि । ढलियार चामराओ छत्तं उचरिष्टियं झत्ति ॥ ८३ ॥ पूरियस यलनहंगणमग्गं ताहे पवाइयं तुरं । अइमुहलो जयसद्दो पओजिओ वंद्विविंदेहिं ॥ ८४ ॥ | पत्तो रायसहाए मुत्तामणिमंडिए चउक्कम्मि | सीहासणोवरिगओ पणओ सामंतचक्केण ॥ ८५ ॥ जाओ महानरवई पयापरिभूयवेरिनरनाहो । सो रज्जं रंजियसुयणमाणसो माणइ जहिच्छं ॥ ८६ ॥ जाओ जणे पवाओ जह इमिणा चंदमंउलं सुमिणे । पीयं तस्स पसाएण पावियं एरिसं रज्जं ॥ ८७ ॥ सुणियं च तेण देसियनरेण किं एरिसं न मे जायं । नरनाहत्तं वीणणदोसाओ जणेण सो भणिओ ॥ ८८ ॥ एतो जमन्नमेवं सुमिणं लब्भामि तं कहिस्सामि । निउणस्स करमई जेण होज इय रज्जसंसिद्धी ॥ ८९ ॥ दहितकपउरभोयणपरायणो सोविरो जहिच्छाए । सुविणं मग्गंतो सो कि - लिस्मिओ कालमबहुयं ॥ ९० ॥ जह तस्स एयसुविणयलाभो अइदुलहो तहा भट्टं । मणुयत्तं मणुयाणं अपारसंसार| नीरहरे ॥ ९१ ॥ एसो सेस कहाणयले सो पत्थावमागओ जेण । तेण भणिज्जइ सो अन्नया उ चिंतेइ नरनाहो ॥ ९२ ॥ उद्धं रजां मय मंडणाण वरवारणाण य सहस्सो । एगित्थ देवदत्ता ण अस्थि तो णूणमाभाइ ॥ ९३ ॥ यतः
“नेहलिनिग्ग मेलइ निकारण रसी, वसणसएवि अमूढइ विहवि अणुलसी । सज्जणि सरलसहावइ तेहवि सोमथिरि, माणुममंगमि सग्गु कि सग्गह सिंगु सिरि ? ॥ १ ॥”
उज्जेणिसामिणा दाणमाण गहिएण विहियपणएण । अम्भस्थिरण बहुहा समप्पिया देवदत्ता से ॥ ९४ ॥ विसुयं सद्ध
घ 'सूहवि' ।