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श्रीउपदेशपदे
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कयाइ । तह 'वेव जाइसरणो संपन्नो लज्जिओ संतो ॥ ८४ ॥ ण तरइ तणयं वप्पं ति भाणिडं न य बहुपि जणणिति । तो मोणवयपरमो ठिओ स मूयत्तणं पत्तो ॥ ८५ ॥ कुमरत्तेण ठियस्स उ एगंतेणेत्र विसयविमुहस्स । तस्सन्नया मुणिंदो निम्मलचउणाणसंपन्नो ॥ ८६ ॥ गामागरनगरसमाउलम्मि भूमंडलम्मि विहरतो । णामेणं धम्मरहो समोसढो वाहिरुजाणे ॥ ८७ ॥ उवओगोऽणेण कओ जह वोही कस्स होहिही एत्थ । णायं जहेस तावसजीवो मूयत्तणं पत्तो ॥ ८८ ॥ लद्धावसरो संपइ बोहीलाभस्स पेसिओ ताहे । संघाडगो तयग्गम्मि गाहमेयं पढेइ जहा ॥ ८९ ॥ तावस ! किमिहा मोचण पडवज जाणिडं धम्मं । मरिऊण सूयरोरग जाओ पुत्तस्स पुत्तोत्ति ॥ ९० ॥ तं सोऊण विम्हियाचित्तो ते साहुणोऽभिवंदेइ । पुच्छर तह कहमेसो मम वृत्तंतो अहिगओ त्ति ॥ ९१ ॥ तो भासंत वियाणइ अम्हाण गुरु वयं न उण किंचि । सो भयवं कत्थच्छइ पुट्ठो तेणं भांति जहा ॥ ९२ ॥ उज्जाणम्मि मणोरमणामे कयसंभमो तओ जाइ । वंदणनिमित्तमेसो सुणेइ जिणभासियं धम्मं ॥ ९३ ॥ लद्धा बोही सयला हिवाहिसंदोहसेलकुलिससमा । परिचत्तमूयभावो तत्तो सो जंपिडं लग्गो ॥ ९४ ॥ नवरि न मूयगनामं लोगपरूढं इमस्स ओसरियं । इय मूयगोत्ति नामं जणम्मि एयस्स विक्खायं ॥ ९५ ॥ ( सुरः ) एत्तो वि मूयगाओ बोही मे कत्थ होहिई भयवं ! | ( जिन: - ) सिहरढे वेढे गिरिम्मि कूडम्म सिद्धमि ॥ ९६ ॥ ( सुर:- ) केणोवाएण इमा भविस्सइ, (जिनः ) पुबजाइसरणाओ । ( सुर:-) तंपि य कत्तो होही (जिन:-) नियकुंडलजुयलदरिसणओ ॥ ९७ ॥ एवमुलवद्धबोहोवाओ वहुमाणओ जिणं नमि । कोसंवीए उवगओ सो तियसो मूयगसमीवं ॥ ९८ ॥ दाविय नियरूवसिरिं साहइ तव चुल्लभाउगो होहं । तह कज्जं जह
श्री अर्ह६तोदाहर
णम्
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