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________________ गाथा १७ उत्तर- वास्तवमे तो ये द्रव्यपर्याय है किन्तु स्पर्शन इन्द्रियके विषय होनेसे इन्हे स्पर्शगुणके पर्यायरूप उपचारसे माना है । कहो, नरम, Errai - प्रश्न ५८-प्रकाश भी चक्षुरिन्द्रियका विषय होनेसे रूप गुणका पर्याय माना जाना चाहिये? Jame उत्तर- प्रकाशरूप गुण ही काला, पीला, नीला, सफेद इन पाँच पर्यायोसे भिन्न है। प्रकाश निमित्तके सद्भावको पाकर बनता और नष्ट होता है किन्तु रूपकी पर्यायें इस तरह न बनती न नष्ट होती है । अतः प्रकाश द्रव्यपर्याय ही है। प्रश्न ५६- स्कन्ध होनेपर क्या परमाणुकी स्वभावव्यजन पर्यायका बिल्कुल अभाव हो जाता है ? ande-उत्तर- शुद्धनयसे याने स्वभावदृष्टि से स्कन्धावस्थामें भी परमाणुके अन्तःस्वभावव्यंजनपुर्याय है, किन्तु स्निग्धत्व रूक्षत्व विभावके कारण स्वास्थ्यभाव (अपनेमे ही रहे ऐसे भाव) से भ्रष्ट होकर परमाणु विभावव्यजनपर्याय रूप हो जाते है । जैसे शुद्ध (स्वभाव) दृष्टिसे संसारावस्थामे भी अन्तजीवको स्वभावव्यंजनपर्याय (सिद्धस्वरूप) है, किन्तु रागद्वेष विभावके कारण स्वास्थ्यभावसे भ्रष्ट होकर मनुष्य, तिर्यञ्च आदि विभावव्यञ्जन पर्यायरूप हो रहा है । प्रश्न ६०- इस गाथासे हमे किस शिक्षापर ध्यान ले जाना चाहिये ? tate-उत्तर- विभावव्यञ्जन पर्याय होनेपर भी उस पर्यायको गौण कर मात्र परमाणुपर लक्ष्य देकर वहाँ केवल शुद्धप्रदेशरूप परमाणुका ध्यान करना चाहिये और इसी प्रकार मनुब्यादि विभावव्यञ्जन पर्याय होनेपर भी उस पर्यायको गौण कर मात्र शुद्ध जीवास्तिकायपर लक्ष्य देकर वहां शुद्धजीवास्तिकायका ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार पुद्गल द्रव्यका वर्णन करके अब धर्मद्रव्यका वर्णन किया जाता है गइपरिणयारण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोय जह मन्छारण अच्छंता रणेव सो गई ॥१७॥ अन्वय- गइपरिणयाण पुग्गलजीवाण गमण सहयारी धम्मो । जह मच्छाएं तोय । सो अच्छता व णेई। अर्थ-गमनमे परिणत पुद्गल और जीवोके जो गमनमे सहकारी निमित्त है उसे धर्मद्रव्य कहते है । जैसे जल मछलीके गमनमे सहकारी है। धर्मद्रव्य ठहरने वाले जीव या पुद्गलोको कभी नही ले जाता है। प्रश्न १-गमनसे यहां क्या तात्पर्य है ? उत्तर- एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमे चले जाना, यही गमनका तात्पर्य है। थोड़ा हिलना, गोल चलना, यथा कथवित् मुड़ना आदि सब क्रियायें गमनमे अन्तर्गत है।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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