SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३\७ गाथा ६ उत्तर- जो मन:पर्ययज्ञान परके मनमे स्थित सरल सीधी बातको जाने वह ऋजुमति - मन पर्ययज्ञान है । प्रश्न १६६ -- विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान किसे कहते है ? उत्तर - जो मन:पर्ययज्ञान परके कुटिल मनमे भी स्थित अर्धचिन्तित, भविष्य मे विचारी जाने वाली, भूतकालमे विचारी गई आदि बातोको जाने वह विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान है । प्रश्न १७० - केवलज्ञान किसे कहते है ? उत्तर - जो स्वतत्रतासे केवल आत्मशक्ति द्वारा त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायो सहित समस्त द्रव्योको सर्वदेश प्रत्यक्ष जाने उसे केवलज्ञान कहते है । यह ज्ञान सर्व प्रकार उपादेयभूत है । ' प्रश्न १७१-- इस ज्ञानकी उत्पत्तिका साधन क्या है ? उत्तर- निज शुद्धात्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप एकाग्र ध्यान केवलज्ञानको उत्पत्तिका साधन है । — उत्थानिका - अब उक्त ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके वर्णनका नयोसे विभाग करते हुए उपसहार करते है अटु चदुरणारण दसरण सामण्ण जीवलक्खरण भणिय । ववहारा सुद्धणया सुद्ध पुरण दसरण णाणं ॥ ६ ॥ ग्रन्वय—ववहारा अट्ठ गारण चदु दसण सामण्ण जीवलक्खण भरिणय, पुरण सुद्धगया सुद्ध दसरण गारण जीवलक्खण । f अर्थ-व्यवहारनयसे आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारका दर्शन सामान्य रूप से जीवका लक्षण कहा गया है, परन्तु शुद्धन से शुद्ध (निरपेक्ष) दर्शन ज्ञान जीवका लक्षण है | प्रश्न १ - व्यवहारनय किसे कहते है ? उत्तर - जो बुद्धि, पर्याय, भेद, सयोगको विषय करे उसे व्यवहारनय कहते है । प्रश्न २ - आठ प्रकारके ज्ञान और चार प्रकारके दर्शन जीवके लक्षण व्यवहारनयसे क्यो है ? उत्तर-- केवलज्ञान और केवलदर्शन तो शुद्ध पर्याय है और मतिज्ञान, 'श्रुतज्ञान, प्रव धिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान तथा चक्षुर्दर्शन, प्रचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये अशुद्ध अर्थात् अपूर्ण पर्यायें है । ग्रतः इनको जीवका लक्षण कहनां व्यवहारनयसे ही बनता है । प्रश्न ३-- केवलज्ञान, केवलदर्शन किस व्यवहारनयसे जीवका लक्षण है ? उत्तर-- केवलज्ञान व केवलदर्शन शुद्ध मभूत व्यवहारनयसे जीवका लक्षण है । इस प्रसगमे इस नयका दूसरा नाम अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय भी है । केवलज्ञान और केवल -
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy