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________________ गाथा ५ ३५ प्रश्न १५३- लोकबिन्दुसार पूर्वमे कितने पद है और इसमे किसका वर्णन है ? उत्तर- इस पूर्वमे १२ करोड ५० लाख पद है । इसमे तीनो लोकोका स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप और मोक्ष प्राप्त करनेके कारण, ध्यान आदिका वर्णन है । प्रश्न १५४- पूर्ण श्रुतज्ञान किसे कहते है ? उत्तर-पूर्ण श्रुतज्ञान श्रुतकेवलीके होता है । द्वादशागके पाठी व ज्ञाता तो इन्द्र, लौकान्तिकदेव व सर्वार्थसिद्धिके देव भी होते है, किन्तु अगबाह्यसे अपरिचित होनेसे वे श्रुतकेवली नही कहलाते । श्रुतकेवली निर्ग्रन्थ साधु ही हो सकते है। प्रश्न १५५-- श्रुतज्ञान क्या सर्वथा परोक्ष ही होता है या किसी प्रकार प्रत्यक्ष भी हो सकता है ? उत्तर-शब्दात्मक श्रुतज्ञान तो सर्व परोक्ष ही है, स्वर्ग आदि बाह्य विपय ज्ञान भी परोक्ष ही है । मै सुख-दुःखादिरूप हू, ज्ञानरूप हू, यह ज्ञान ईषत् परोक्ष है। शुद्धात्माभिमुख स्वसम्वेदनरूप ज्ञान प्रत्यक्ष है, हाँ केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष है ।) प्रश्न १५६- यदि श्रुतज्ञान क्वचित् प्रत्यक्ष है तो "प्राद्ये परोक्षम्" इस सूत्रसे विरोध आ जायगा? उत्तर- "प्राद्ये परोक्षम्' यह उत्सर्ग कथन है । जैसे मतिज्ञान परोक्ष होकर भी अपवादस्वरूप, साव्यवहारिकको प्रत्यक्ष भी माना है, वैसे श्रुतज्ञान परोक्ष होकर भी अपवादस्व रूप अन्तन प्रत्यक्ष माना जाता है। स्था५ 7 शान रवानुभव प्रश्न १५७- अवविज्ञान किसे कहते है ? उत्तर- अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे व वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे मूर्त वस्तुको आत्मीय शक्तिसे एकदेश प्रत्यक्ष जाननेको अवविज्ञान कहते है । अवधि मर्यादाको कहते है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादाको लेकर जाने उसे अपविज्ञान कहते है । अवधिज्ञानसे पहिलेके सब ज्ञान भी मर्यादाके भीतर ही जानते है। प्रश्न १५८- इससे तो मन पर्ययज्ञान मर्यादा रहित जानने वाला हो जावेगा ? उत्तर- नही, मन पर्ययज्ञान भी अवधिज्ञानसे पहिलेका ज्ञान है, क्योकि वास्तवमे। ज्ञानोके नाम इस क्रमसे है- (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) मन पर्ययज्ञान, (४) अवधि-) ज्ञान, (५) केवलज्ञान । प्रश्न १५६-- सूत्रमे व इस गाथामे तो "मतिश्रुतावविमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्" ऐसा क्रम दिया है। उत्तर-- मन पर्ययज्ञान ऋद्धिधारी संन्यासी मुनिके ही होता है, इस विशेष प्रयोजनको दिखाने के लिये मन पर्ययज्ञान वावधिज्ञानके बाद ओर केवलज्ञानसे पहिले लिखा गया है।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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