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गाथा ५७
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नुभवका प्रतिबन्धक है । अत सभी प्रकारके वचनव्यापारोका निरोध परमध्यानके लिये आवश्यक है।
प्रश्न ६-- कौनसे मानसिक व्यापारोका निरोध परमध्यानके लिये आवश्यक है ?
उत्तर-- शुभ तथा अशुभ सभी प्रकारके विकल्परूप चित्तव्यापारोका निरोध परमध्यानके लिये आवश्यक है।
प्रश्न ७-- शुभ भावनाप्रोका निरोध परमध्यानके लिये क्यो आवश्यक है ?
उत्तर - अशुभ भावनाके विकल्पकी तरह शुभ भावनाके विकल्प भी निर्विकल्प, निरञ्जन सहज शुद्ध निज स्वभावके अनुभवके प्रतिबन्धक है, अतः शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के विकल्पोका विरोध परमध्यानके लिये आवश्यक है।
प्रश्न ८- काय, वचन, मनके व्यापारके निरोधपूर्वक होने वाली प्रात्मलीनतामे आत्मा की क्या स्थिति रहती है?
उत्तर-आत्मलीनतामे रागद्वेषके मर्वविकल्पोसे रहित परम समाधि होती है और आत्मीय सहज परमानन्दकी अनुभूति होती है ।
प्रश्न :-इस परमध्यानका फल क्या है ?
उत्तर- यह परमध्यान, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति और अनन्तानन्दके आविर्भावका कारण है । जिस अनन्तचतुष्टय फलके प्रकट होनेसे यह परमतत्त्वदर्शी अनन्तकाल तक याने सर्वकाल तक परमात्मत्वका अनुभव करता है ।
प्रश्न १०- इस परमध्यानमे ध्येयभूत तत्त्व क्या होता है ?
उत्तर- यह परमध्यान निर्विकल्प परमसमाधिरूप अवस्था है, प्रत बुद्धिपूर्वक ध्यान तो क्सिीका भी नहीं है, परन्तु निस्तरग परिणमनमे ध्रुव, परमपारिणामिक भावस्वरूप, सहजज्ञानदर्शनानन्दमय समयसार ध्येय रह जाता है । इसे सहज शुद्ध प्रात्मतत्त्वका सहज अवलम्बन कहते है । इसमे यह आत्मा आनन्द, अनन्त, अहेतुक चैतन्यस्वभावको कारणरूपसे उपादान करके स्वय सहज आनन्दरूप परिणमता रहता है । यही परमकारण है।
इस प्रकार दस गाथानोमे ध्यानसम्बन्धी तत्त्वोका उपदेश करके श्रीमत्सिद्धान्तिदेव प्राचार्य अब ध्यानके वर्णनोका उपसहार करते हुए सदादेश देते है-.
तवसुदवदव चेदा झाणरहधुरघरो हवे जम्हा ।
तम्हा तत्तियरिणरदा तल्लद्धीए सदा होह ।।५७।। अन्वय- जम्हा तव सुदवदव चेदा झाणरहधुरधरो हवे, तम्हा तल्लद्धीए सदा तत्तियगिरदा होह।
अर्थ-चूकि तप श्रुत बत वाला प्रात्मा ही ध्यान रूपी रथको धुरीका धारण करने