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________________ गाथा ५० २६५ भीतके आवरण होनेपर खिडकियोके द्वारसे ही देख सकता है, किन्तु यदि भीतका आवरण समाप्त हो जाय तो वह पुरुप सर्व ओरसे देख सकता है। यह एक कोणका स्पष्टीकरणके लिये दृष्टान्त है । इसी प्रकार कर्म नोकर्मका प्रावरण रहनेपर अात्मा इन्द्रियद्वारसे जानता है, सो जैसे खिडकी द्वारसे भी पुरुष जाने तो वहां भी पुरुप अपने बलसे ही देखता है वैसे ही इन्द्रिय द्वारसे जाने तो वहां भी आत्मा ही ज्ञानबलके द्वारा जानता है, परन्तु ज्ञानके आवरणोके समाप्त होनेपर आत्मा सर्व ओरसे समस्त द्रव्य गुण पर्यायको जानता है। प्रश्न ३१- जैसे भीतका आवरण समाप्त होनेपर भी पुरुप सीमा लेकर ही देखता है वैसे ज्ञानका आवरण समाप्त होनेपर भी आत्मा सीमा लेवर क्यो नही जानता है ? उत्तर- भीतका प्राश्रयभूत आवरण समाप्त होनेपर भी उस पुरुषके वास्तविक आवरण कर्म नोकर्मका तो लगा हुआ ही है। अतः वह पुरप सीमा लेकर ही जानता है । परन्तु जिस आत्माके कर्म नोकर्म इन्द्रियके आवरण समाप्त हो गये है वह सीमा लेकर जाने, इसका कोई कारण नहीं है । यह निरावरण ज्ञान तो अनन्त ही होता है। -प्रश्न ३२- अनन्तदर्शन परग्गत्माके न हो तो क्या हानि है ? - उत्तर- दर्शनके बिना ज्ञान अनिश्चित अवस्थामे रहेगा और ऐसे ज्ञानकी प्रमाणता न रहेगी, अत: दर्शन होना आवश्यक है। अनन्तज्ञानके साथ अनन्तदर्शन हो होता है, और पूर्ण मानके उपयोगके साथ ही दर्शनोपयोग होता है। प्रश्न ३३-सुख दुख ही तो ससार है तब मुख दुखका प्रभाव मोक्ष है, तव परमात्मामे सुख (ग्रानन्द) कैसे रह सकता है ? उत्तर- मुख दुःखका अभाव मोक्ष है यह सही है, किन्तु मुखका अर्थ यहाँ इन्द्रियजन्य सुखसे है, सो इन्द्रियजन्य सुखका अभाव मोक्षमे है । जैसे कि इन्द्रियजन्य जानका अभाव मोक्षमे है । किन्तु आनन्द गुण तो आत्माका शाश्वत गुण है, उसकी परिणति तो रहेगी। वह परिणति अनन्त प्रानन्दस्वरूप है । यह प्रानन्द अतीन्द्रिय है, प्रानन्द गुण है तभी तो ससार-अवस्थामे सुख दुःखकी सिद्धि है अन्यथा बतावो सुख दुःख किस गुणको पर्याय है ? वाभाविक आनन्द, इन्द्रियजन्य सुख व दुख ये सभी आनन्द गुणकी पर्याये है। भगवान ने प्रानन्द गुणकी अनन्त आनन्दस्वरूप परिणति चलती ही रहती है। प्रश्न ३४- अनन्तशक्तिका परमात्मामे और क्या प्रयोजन है ? उत्तर-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तनानन्द प्रादि अनन्तपरिणति करनेके लिये अनन्तशत्ति चाहिये ही, मो परमात्मामे अनन्तशक्ति होती ही है। प्रश्न ३५- अरहन्त प्रभु क्या केवल पदस्थ ध्यानमे ही ध्येयभून होते हैं ? उनर-पिण्डस्थ और रूपस्थ ध्यानमे भी परहन्त प्रभु ध्येयभून होते है ।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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