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________________ गाना ३८ २२० उत्तर-सम्यग्दृष्टियोके भी पुण्यके फलमे मिलता तो ससार ही है, किन्तु ससारकी वृद्धिका कारण नहीं होता। सम्यग्दृष्टि मरण करके इस पुण्यके फलमे देव होता है तो उस पर्यायमे तीर्थङ्करोके साक्षात् दर्शन कर "ये वही देव है, वही समवशरण है जिसे पहिले सुना था आदि" भावोसे धर्म प्रमोद बढाते है, और कदाचित् भवोका अनुभव करने पर भी आसक्ति नही करते है । पश्चात् स्वर्गसे चयकर मनुष्य होकर यथासंभव तीर्थकरादि पद प्राप्त कर पुण्यपापरहित इस निज शुद्धात्मतत्त्वके विशेष ध्यानके बलसे मोक्ष प्राप्त करते है। प्रश्न २२-पुण्य व पाप तत्त्वोमे क्यो नही दिखाये ? उत्तर-पुण्य व पापका अन्तर्भाव आस्रवतत्त्वमे हो जाता है। आस्रव दो प्रकारके होते है-एक पुण्यास्रव दूसरा पापास्रव । अतः सामान्य विवक्षा करके एक आस्रव तत्त्व ही कह दिया है। प्रश्न २३–यदि प्रास्रवके ही भेद पुण्य पाप है और कोई अन्तर नही, तो पदार्थ भी ८ ही कहलायेगे ६ नही ? उत्तर-प्रास्रव और पुण्यपापमे कथचित् अन्तर है-आस्रव तो अकर्मत्वसे कर्मत्व अवस्था प्राप्त होनेको कहते है । इसकी तो क्रियापर प्रधानता है और पुण्य पापमे प्रकृतित्वकी प्रधानता है । इसी कारण पदार्थकी सख्या कहते समय पुण्य पाप कहकर भी आस्रवका ग्रहण नही हो सकनेसे आस्रवको भी पदार्थमे गिना तब पदार्थ ६ कहना युक्तियुक्त ही है । इस प्रकार सात तत्त्व और नव पदार्थका व्याख्यान करने वाला यह तृतीय अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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