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________________ १६२ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका उत्तर- धन, परिवारका सम्बन्ध तो उपचरित असद्भूतव्यवहारसे है, शरीर, कर्म का सम्बन्ध अनुपचरितप्रमभूतव्यवहारसे है और रागादि विभावका सम्बन्ध मात्र अगुद्धनिश्चय नयसे जीवके साथ है । असद्भूतका तो प्रात्मामे अत्यन्ताभाव है और अशुद्धपर्याय प्रौपाधिक व क्षणिक परिणमन है। प्रश्न १८३- अशरणानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर-देव, मुभट, मित्र, पुत्रादि व मणि, मन्त्र, तन्त्र, आशीर्वाद, प्रौपधादिक कुछ भी उम जीवको मरणसमयमे तथा वेदना श्रादि समस्त परिणमनोंके समयमे शरण नहीं है, ऐसी भावना करनेको अशरणानुप्रेक्षा कहते है । प्रश्न १८४---उस अशरणभावनासे क्या लाभ होता है ? उत्तर-बाह्य पदार्थोंको शरण माननेका अभिप्राय मिट जानेसे जीव शाश्वत शरणभूत निज गुद्ध प्रात्माका शरण प्राम कर लेता है, जिससे यह अन्तरग्रात्मा भय और निदान वाधारहित सहज अानन्दका अनुभव करता है। प्रश्न १८५- संसारानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर- यह जीव अनादिकालमे द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन व भावपरिवर्तन-इन पाँच प्रकारके ससारो याने परिम्रमणोमे नाना प्रकारके भयकर दुखमात्र अज्ञानसे भोगता चला आया है । इस प्रकारके चिन्तवनको ससारानुप्रेक्षा कहते हैं । प्रश्न १८६-द्रव्यपरिवर्तन या द्रव्यससार क्या है ? उत्तर-परिवर्तन नाम परिभ्रमणका है । इन परिवर्तनोमे मुख्य बात यह ही जानने की है कि जोवका परिभ्रमणमे इतना काल व्यतीत हो गया है। इन परिवर्तनोके वर्णनसे भ्रमणके समयका परिचय कराया गया है । द्रव्यपरिवर्तन दो प्रकारसे वरिणत है- नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन, (२) कर्मद्रव्यपरिवर्तन । जिसमे से नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप पहिले समझ लेना चाहिये। प्रश्न १८७- नोकर्मद्रव्यपरिवर्तका क्या तात्पर्य है ? उत्तर- नोकर्मका अर्थ है शरीर । जैसे किसी जीवने यथासम्भव तीन मन्द मध्यम भाव वाले स्पर्श रस गध वर्णयुक्त नोकर्मवर्गणासोको शरीररूपसे ग्रहण किया। पश्चात् द्वितीयादि समयमे वे खिर गये, किन्तु अनेक अगृहीत नोकर्मवर्गणाओको ग्रहण किया। इसी तरह अनन्त बार अगृहीत नोकर्मवर्गणावोको ग्रहण कर चुकनेपर एक बार मिश्रवर्गणावोको ग्रहण किया। अनन्त बार अगृहीत वर्गणाओको ग्रहण करनेपर एक बार मिश्र (जिनमे कुछ गृहीत व कुछ अगृहीतवर्गणायें हो) वर्गणावोको ग्रहण किया। इसी रीतिसे जब अनन्त बार मिश्रवर्गण,मोका ग्रहण हो चुके तब एक वार गृहीतवर्गणाओको ग्रहण किया। अगृहीत--मिश्र
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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