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________________ १५८ द्रव्यसंग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका - उत्तर-चेतनपरिणाम प्राते हुए कर्मोको तो नही रोकता है, किन्तु शुद्ध चेतनपरिरणामके निमित्तसे कर्मोका पाना (प्रास्त्रव) रुक जाता है याने कर्म आते ही नही है। . प्रश्न २- शुद्ध चेतनपरिणामकी निप्पत्ति कैसे होती है ? - उत्तर-अनादि अनन्त, अहेतुक, सहजानन्दमय, मप्रकाशमान, ध्र व, कारणपरमात्मस्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वभावकी भावनासे शुद्ध चेतनपरिणामको निष्पत्ति होती है। प्रश्न ३-- शुद्ध चैतन्यस्वभाव अनादि अनन्त कैसे है ? उत्तर- चेतन अथवा चेतन्यस्वभाव सत् है । सतुकी न अादि होती है और न अत होता है, केवल परिणमन होता रहता है । यहाँ परिणमनपर दृष्टि नहीं है, क्योकि परिणमन तो समयमात्र रहकर नष्ट होता रहता है, मै आगे भी रहता है। परिणमन समयमात्रको होता है, मैं उससे पहिले भी था, अत. मै अनादि अनन्त हूँ। प्रश्न ४- शुद्ध चैतन्यस्वभाव अहेतुक कैसे है ? उत्तर--चेतन्यस्वभाव स्वत सिद्ध है, वह किन्ही कारणोसे उत्पन्न नहीं हुआ। कारणो से उत्पन्न तो पर्याय होती है, क्योकि प्रतिविशिष्ट पर्याय जो होती है वह पहिले नहीं थी। मै अथवा चैतन्यस्वभाव पहिले नही था, ऐसा नहीं है । अतः मै अहेतुक हू अथवा चैतन्यस्वभाव अहेतुक है। प्रश्न ५- चैतन्यस्वभाव सहजानन्दमय कैसे है ? उत्तर-चेतनमे आनन्दगुण सहज है, स्वभावरूप है । आत्माका न तो आनन्दगुण) किसी अन्य द्रव्यसे हुआ और न आनन्दका विकास किसी अन्य द्रव्यसे होता है तथा शुद्ध चैतन्यस्वभावको भावनामे सहज अनुपम परम आनन्द प्रकट होता है, जिससे स्वभावका पूर्ण, साक्षात् परिचय मिलता है । अतः चैतन्यस्वभाव सहजानन्दमय है।। ___ प्रश्न ६- चैतन्यस्वभाव नित्य प्रकाशमान कैसे है ? उत्तर- चैतन्यस्वभाव दर्शनसामान्यात्मक है। यह स्वभाव तो नित्य प्रकाशमान है हो, किन्तु इसका प्रत्यय सम्यग्दृष्टिको होता है । व्यवहारमे भी ज्ञानदर्शनका किसी न किसी रूपमे विकास प्रत्येक जीवमे रहता है, वह चैतन्यस्वभावका ही तो विकास है। अत चैतन्यस्वभाव नित्य प्रकाशमान है। प्रश्न ७- चैतन्यस्वभाव ध्रुव क्यो है ? उत्तर- चेतन अथवा चैतन्यस्वभाव अविनाशी है, सत् है । सत्का कभी विनाश नही होता । अत' चेतन अथवा चैतन्यस्वभाव ध्रुव है।। प्रश्न ८-- चैतन्यस्वभावको कारणपरमात्मा क्यो कहते है ? उत्तर-- कार्यपरमात्मत्व याने शुद्ध पूर्ण विकास चैतन्यस्वभावका ही परिणमन है,
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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