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________________ १०८ द्रव्यसंग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका प्रश्न १६-- यह तो मुक्त होनेके समयका उत्पाद, व्यय, ध्रीव्य है, क्या मुक्त होनेपर भविष्यत्कालोमे भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सिद्ध जीवोमे होता है ? उत्तर-- वर्तमान केवलज्ञान आदि शुद्ध विकासका उत्पाद व पूर्वक्षणीय केवलज्ञान "प्रादि शुद्ध विकासका व्यय व द्रव्य वही, इस प्रकार उत्पाद व्यय ध्रौव्य रहता है । सिद्ध जीवो मे शुद्ध विकासरूप शुद्ध परिणमन ही प्रतिसमय नव नव होता रहता है । प्रश्न १५- किस द्रव्यमे कितने प्रदेश है ? उत्तर- प्रदेशोकी सख्याका वर्णन आगेकी गाथामे किया जा रहा है, सो उस गाथा से जानना चाहिये। अब किस द्रव्यके कितने प्रदेश है, यह वर्णन करते है होति असखा जीवे धम्माधम्मे अणत आयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो कामो ॥२५॥ अन्वय-जीवे धम्माधम्मे असखा, आयासे अणत, मुत्ते तिविह पदेसा होति । कालस्सेगो तेण सो कानो णत्यि। अर्थ- जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्यमे असख्यात प्रदेश है, अाकाशमे अनन्त प्रदेश है और मूर्त (पुद्गल) द्रव्यमे सख्यात, असख्यात व अनन्त ऐसे तीनो प्रकारके प्रदेश होते है । काल द्रव्यके एक ही प्रदेश है इस कारण यह अस्तिकाय नही है। प्रश्न १- जीव, धर्म, अधर्मद्रव्यमे बराबरके असख्यात प्रदेश है या कम अधिक ? उत्तर- इन तीनो द्रव्योमे बराबरके प्रमाणके प्रदेश है, कम या अधिक नहीं । यहाँ जीवसे एक जीव ग्रहण करना चाहिये । प्रत्येक जीवमे असख्यात प्रदेश होते है । प्रश्न २- ये असंख्यात प्रदेश ऊनी सख्याके है या पूरी सख्याके ? उत्तर-ये असख्यात पूरी सख्यापर पूरे होते है २-४-६ आदि सख्याको जिनमे २ का भाग जाकर नीचे कुछ शेष न बचे ऐसी परिमाणको पूरी सख्या वाला परिमाण कहते है। प्रश्न ३- जीवद्रव्यमे असख्यात प्रदेश कैसे विदित हो सकते हैं ? उत्तर- जीवद्रव्य लोकपूरक समुद्धातमे पूरा फैल पाता है । इस समुदातमे जीव लोक ) के सब प्रदेशोमे ही रहता वहां लोकके एक-एक प्रदेशपर जीवका एक-एक प्रदेश है और लोक के प्रदेश असख्यात हैं, यो जीव द्रव्य भी असख्यात प्रदेशो है। निश्चयनयसे जीव अखण्ड प्रदेशी है। उसमे प्रदेश सख्याका विभा । व्यवहारनयसे किया है। प्रश्न ४-- धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्यगे असख्यात प्रदेश क्यो होते है ? उत्तर- धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य केवल लोकाकाशमे सबमे व्याप्त हैं, प्रत ये दोनो द्रव्य
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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