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युगवीर-निवन्धावली
हो सकता हो । किसी भी विरुद्ध कथनके साथमे न होते हुए, एक स्त्रीको अगीकार करनेका अर्थ उसे स्त्री वनानेके सिवाय और क्या हो सकता है ? क्या 'स्वीकृतवान्' पदसे पहले 'स्त्रीरूपेण' ऐसा कोई पद न होनेसे ही आप यह समझ बैठे हैं कि वसतसेनाकी स्त्रीरूपसे स्वीकृति नही हुई थी या उसे स्त्रीरूपसे अगीकार नही किया गया था ? यदि ऐसा है तो इस समझपर सहस्र धन्यवाद है । जान पडता है अपनी इस समझके भरोसेपर ही आपने श्लोकमं पडे हुए 'श्वश्र्वा ' पदका कोई खयाल नही किया और न 'स्वीकृति' या 'स्वीकार' शब्दके प्रकरणसगत अर्थपर ही ध्यान देनेका कुछ कष्ट उठाया । श्लोकमे ' श्वश्र्वाः ' पद इस वातको स्पष्ट वतला रहा है कि चारुदत्तने वसुदेवसे वाते करते समय अपनी माताको वसन्तसेनाकी 'सास' रूपसे उल्लेखित किया था और इससे यह साफ जाहिर है कि वसुदेवके साथ वार्तालाप करनेसे पहले चारुदत्तका वसतसेनाके साथ विवाह हो चुका था । स्वीकरण, स्वीकृति और स्वीकार शब्दोका अर्थ भी विवाह होता है - इसीसे वामन शिवराम आप्टेने अपने कोश मे इन शब्दोका अर्थ Espousal, wedding तथा marriage भी दिया है और इसीलिये उक्त श्लोकमे 'स्वीकृतवान्' से पहले 'स्त्रीरूपेण' पदकी या इसी आशयको लिये हुए किसी दूसरे पदके देनेकी कोई जरूरत नही थी उसका देना व्यर्थ होता । स्वय श्री जिनसेनाचार्यने अन्यत्र भी, अपने हरिवशपुराणमे, 'स्वीकृत' को 'विवाहित ( ऊढ )' अर्थमे प्रयुक्त किया है, जिसका एक स्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है
'यागकर्मणि निवृत्ते सा कन्या राजसूनुना ।
स्वीकृता तापसा भूपं भक्तं कन्यार्थमागताः || ३० ॥
१. जिनदास ब्रह्मचारीके हरिवशपुराण में भी 'स्वीकृत' को 'ऊट'
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