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न्यायोचित विचारोंका अभिनन्दन ८६३ हुए स्याद्वाद-न्यायकी तुलामे तुली हुई थी, इसीसे किसीको भी उसका विरोध करते प्रायः नही बनता था और वे अपने जिनशासन-प्रचार-मिशनमे पूर्णतः सफल हुए हैं। यही वजह है कि बैलूर तालुकेके एक प्राचीन कनडी शिलालेख न० १७ मे, जो शक सवत् १०५६ का उत्कीर्ण है, स्वामी समन्तभद्रको श्री वर्धमानके तीर्थ-शासनकी हजार गुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त होनेवाले लिखा है।
जिनशासनका प्रचार करनेके लिए स्वामी समन्तभद्रके उदार दृष्टिकोण, लोकहितकी भावना और उस निर्दोष वचनपद्धतिको अपनाना होगा, जिसमे वह मोहन-मत्र छिपा था जिसने उन्हे सर्वत्र सफल-मनोरथ बनाया है। स्वामी समन्तभद्र दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायोके महामान्य आचार्योमे परिगणित है। उन्होने अपने युक्त्यनुशासन नथमे जिनशासनको एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका-सभी अर्थ-क्रियाथिजनोके द्वारा अवश्य आश्रयणीयरूप-सम्पत्तिका--स्वामी होने की शक्तिसे सम्पन्न बतलाया है और उसके अपवादका-एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकने अथवा व्यापक रूपसे प्रचार न पा सकनेका असाधारण बाह्य कारण वक्ताके वचनाऽनयकोआचार्यादि प्रवक्तृवर्ग-द्वारा सम्यक्नय-विवक्षाको छोडकर सर्वथा एकान्त रूपसे उपदेश दिये जानेको-निर्दिष्ट किया है, अत. वचनाऽनयके दोषसे रहित होकर उपदेश देना चाहिए-सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये हुए नही।
वाकी यह खूबी जिनशासनमें स्वत. हैं कि उससे यथेष्ट२. देखो, 'स्वामी समन्तभद्र। ३. साधारण वामकारणमें कलिकालका निर्देश है। .