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युगवीर- निबन्धावली
उठाते, अज्ञ जनताको उनके विषयमे कोई समुचित चेतावनी नही देते, प्रत्युत इसके कोई-कोई विद्वान् तो उनका पक्ष तक लेकर उनकी पूजा - प्रशंसा करते है, ठकुरसुहाती वातें कहकर असत्यका पोषण करते और दम्भको बढ़ावा देते है, यह सब भी चरित्र भ्रष्टतामे दाखिल है, जो विद्वानोको शोभा नही देता । ऐसा करके वे अपने दायित्वसे गिर जाते है और पूर्वाचार्योकी निर्मलकीति तथा निर्मल- जिनशासनको मलिन करनेमे सहायक होते है । अत: उन्हे सावधान होकर चारित्रभ्रष्टता के इस कलकसे बचना चाहिए और मुनिनिन्दा के व्यर्थके होएको दूर भगाकर उक्त भ्रष्टमुनियोके सुधारका पूरा प्रयत्न करना चाहिए - हरप्रकारसे आगम-वाक्योके विवेचनादि द्वारा उन्हे उनकी भूलो एवं दोषोका समुचित बोध कराकर सन्मार्गपर लगाना चाहिए और सतत् प्रयत्न- द्वारा समाजमे ऐसा वातावरण उत्पन्न करना चाहिए, जिससे भवाभिनन्दी मुनियोका उस रूपये अधिक समय तक टिकाव न हो सके और जो सच्चे साधु है उनकी चर्याको प्रोत्साहन मिले' ।
१ 'भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा' नामक ट्रैक्ट, मार्च १९६५ ।