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युगवीर- निवन्धावली
नवैः संदिग्धनिर्वाहैर्विदध्याद्गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥ यतः समयकार्यार्थो नानापचजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद्दूरतरो नरः । ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥ इन पद्योका आशय इस प्रकार है
'ऐसे-ऐसे नवीन मनुष्योसे अपनी जातिकी समूह - वृद्धि करनी चाहिये, जो सदिग्धनिर्वाह हैं -- जिनके विषयमे यह सदेह है कि वे जातिके आचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेंगे । ( और जव यह बात है तब ) किसी एक दोषके कारण कोई विद्वान् जातिसे बहिष्कारके योग्य कैसे हो सकता है ? चूँकि सिद्धान्ताचार - विषयक धर्म - कार्योंका प्रयोजन नाना पचजनोंके आश्रित है— उनके सहयोगसे सिद्ध होता है—अत समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमे लगाना चाहिये -- जातिसे पृथक् न करना चाहिये । यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिकी - खासकर विद्वान्की - उपेक्षा की जाती है— उसे जातिमे रखनेकी पर्वाह न करके जातिसे पृथक् किया जाता है तो उस उपेक्षासे वह मनुष्य तत्त्वसे बहुत दूर जा पडता है । तत्त्वसे दूर जा पड़नेके कारण उसका संसार बढ जाता है और धर्मकी भी क्षति होती हैअर्थात्, समाजके साथ-साथ धर्मको भी भारी हानि उठानी पडती उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नही हो पाता ।'
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आचार्य महोदयने अपने वाक्यो द्वारा जैन जातियो और पंचायतोको जो गहरा परामर्श दिया है और जो दूरकी बात सुझाई है वह सभीके ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब-जब इस प्रकारके सदुपदेशो और सत्परामर्शोपर ध्यान दिया