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भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि निन्दा लोगोके झगडे-टण्टेमे फंसना, पार्टीबन्दी करना, साम्प्रदायिकताको उभारना और दूसरे ऐसे कृत्य करने-जैसा हो सकता है जो समतामे बाधक अथवा योगीजनोके योग्य न हो।।
एक महत्वकी बात इससे पूर्वकी गाथामे आचार्यमहोदयने और कही है और वह यह है कि 'जिसने आगम और उसके द्वारा प्रतिपादित जीवादि पदार्थोंका निश्चय कर लिया है, कषायोको शान्त किया है और जो तपस्यामें भी बढ़ा-चढा है, ऐसा मुनि भी यदि लौकिक-मुनियो तथा लौकिक-जनोका ससर्ग नही त्यागता तो वह सयमी मुनि नही होता अथवा नही रह रह पाता है-ससर्गके दोपसे, अग्निके ससर्गसे जलकी तरह, अवश्य ही विकारको प्राप्त हो जाता है :णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि । लोगिगजन-संसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि॥६॥
इससे लौकिक-मुनि ही नही; किन्तु लौकिक-मुनियोकी अथवा लौकिक जनोकी सगति न छोडनेवाले भी जैन मुनि नही होते, इतना और स्पष्ट हो जाता है, क्योकि इन सबकी प्रवृत्ति प्राय लौकिकी होती है जबकि जैन-मुनियोकी प्रवृत्ति लौकिकी न होकर अलौकिकी हुआ करती है; जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है -
अनुसरतां पदमेतत् करम्विताचार-नित्य-निरभिमुखा । एकान्त-विरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥१॥
-पुस्पार्थसिद्ध्युपाय इसमे अलौकिक वृत्तिके दो विशेषण दिये गए हैं-एक तो करम्बित ( मिलावटी-बनावटी-दूषित ) आचारसे सदा विमुख रहनेवाली, दूसरे एकान्तत (सर्वथा ) विरतिरूपा-किसी भी