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समयसारका अध्ययन और प्रवचन ४१ टीकाएँ प्रायः लोकैषणाके वशवर्ती होकर लिखी जाती है। जो सज्जन लोकैषणाके वशवर्ती नहीं हैं और जिनपर समयसारका थोडा बहुत रंग चढा हुआ है वे वर्षों पहले अपने अध्ययन, अनुभव और मननके बलपर लिखी गई टीकामे अपना विशेष कर्तृत्व नही समझते और आज भी, जबकि उस टीकामे सशोधन तथा परिमार्जनादिका काफी अवसर मिल चुका है, अनेक सत् प्ररेणाओंके रहते हुए भी उसे प्रकाशित करने में हिचकिचाते हैं। मानो वे अभी भी अपनी उस टीकाको टीकापदके योग्य न समझते हो । ऐसे सज्जनोमे वर्णी श्रीगणेशप्रसादजीका नाम उल्लेखनीय है। यद्यपि मैं उनकी इस प्रवृत्तिसे पूर्णत: सहमत नही हूँ--वे अपने प्रवचनो आदिके द्वारा जब दूसरोको अपने अनुभवोका लाभ पहुँचाते हैं तब अपनी उस टीका द्वारा उन्हे स्थायी लाभ क्यो न पहुँचाएं ? फिर भी उनकी उपस्थितिमें जब उनके भक्त अपनी समयसारी टीकाएँ प्रकाशित करने मे उद्यत हो जाएँ तब उनका अपनी कृतिके प्रति यह निर्ममत्व उल्लेखनीय जरूर हो जाता है।
नि सन्देह समयसार जैसा ग्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी आत्म-विकास जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है। हर एकका वह विषय नही है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभावमे कोरी भावुकतामे बहनेवालोकी गति बहुधा 'न इधरके रहे न उधरके रहे' वाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस एकान्तकी ओर ढल जाते हैं जिसे आध्यात्मिक एकान्त कहते हैं और जो मिथ्यात्वमे परिगणित , किया गया है। इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय : उपस्थित किया जायगा।'
१. अनेकान्त वर्ष ११, किरण १२, मई १९५३ ।