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युगवीर-निवन्धावली 'दीक्षा' का अभिप्राय मुनिदीक्षाका ही लिया जाय तो देवीको उच्चगोत्री नहीं कहा जायगा, किसी पुरुषकी सन्तान न होकर ' औपपादिक जन्मवाले होनेसे भी वे उच्चगोत्री नहीं रहेगे। यदि श्रावकके व्रत भी दोक्षामें शामिल है तो तियंच पशु भी उच्चगोत्री ठहरेंगे, क्योकि वे भी श्रावकके व्रत धारण करनेके पात्र कहे गए हैं और अक्सर श्रावकके व्रत धारण करते आए हैं। तथा देव इससे भी उच्चगोत्री नही रहेगे, क्योकि उनके किसी प्रकारका व्रत नही होता-वे अवती कहे गए हैं। यदि सम्बन्ध का अभिप्राय विवाह-सम्बन्धसे ही हो, जैसा कि म्लेच्छखण्डोसे आए हुए म्लेच्छोका चक्रवर्ती आदिके साथ होता है और फिर वे म्लेच्छ मुनिदीक्षा तकके पात्र समझे जाते हैं, तब भी देवतागण उच्चगोत्री नही रहेगे, क्योकि उनका विवाह सम्बन्ध ऐसे दीक्षायोग्य साध्वाचारोके साथ नही होता है। और यदि सम्बन्धका अभिप्राय उपदेश आदि दूसरे प्रकारके सम्बन्धोसे हो तो शक, यवन, शवर, पुलिंद और चाण्डालादिककी तो बात ही क्या ? तिथंच भी उच्चगोत्री हो जायंगे, क्योकि वे साध्वाचारोके साथ उपदेशादिके सम्बन्धको प्राप्त होते हैं और साक्षात् भगवान् के समवसरण में भी पहुँच जाते हैं। इस प्रकार और भी कितनी ही आपत्तियां खडी हो जाती है ।
आशा है विद्वान् लोग श्रीवीरसेनाचार्य के उक्त स्वरूपविषयक कथनपर गहरा विचार करके उन छहो बातोका स्पष्टीकरण करने आदिकी कृपा करेंगे, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, जिससे यह विषय भली प्रकार प्रकाशमे आ सके और उक्त प्रश्नका सबोके समझमे आने योग्य हल हो सके ।'
१ अनेकान्त वर्ष २, किरण २, ता० ३१-११-१९३८