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युगवीर- निवन्धावली
नही किया गया तो जैनियो के दूसरे मदिर-मूर्तियोकी भी निकट भविष्यमे वही दुर्दशा होनेवाली है जो देवगढके मंदिर - मूर्तियो की हुई है और इसलिये उसके लिये उन्हे अभीसे सावधान हो जाना चाहिये और सर्वत्र जैन-धर्मके प्रचारादि द्वारा उनके रक्षक पैदा करने चाहियें ।
यदि दुर्दैवसे देवगढ जैनियोसे शून्य हो भी गया था तो भी यदि आसपास के जैनियोकी - बुन्देलखण्डी भाइयोकी - अथवा दूसरे प्रान्तके श्रावकोकी धर्ममे सच्ची प्रीति - सच्ची लगन - अपने देवके प्रति सच्ची भक्ति और अपने कर्तव्यपालनकी सच्ची रुचि बनी रहती और उन्हे अपने घरपर ही नया मन्दिर वनवा कर, नई मूर्तियाँ स्थापित कराकर बडे-वडे मेले प्रतिष्ठाएँ ग्वा कर तथा गजरथ चला कर सिंघई, सवाई सिंघई अथवा श्रीमन्त जैसी पदवियाँ प्राप्त करनेकी लालसा न सताती तो देवगढके मदिर - मूर्तियोको अभी तक इस दुर्दशाका भोग करना न पडता - उनका कभीका उद्धार हो गया होता । जैनियोका प्रतिवर्ष नयेनये मंदिर - मूर्तियो के निर्माण तथा मेले प्रतिष्ठादिको मे लाखो रुपया खर्च होता है । वे चाहते तो इस रकमसे एकही वर्ष मे पर्वत तकको खरीद सकते थे--- जीर्णोद्धारकी तो है ? परंतु में देख रहा हूँ जैनियोका अपने इस बहुत ही कम ध्यान है । जिस क्षेत्र पर २०० के लेख पाये गये हो, १५७ जिनमे से ऐतिहासिक महत्व रखते हो और उनमे जैनियो के इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी हुई हो उस क्षेत्रके विषयमे जैनियोका यह उपेक्षाभाव, निःसन्देह बहुत ही खेदजनक है । सात वर्ष से कुछ ऊपर हुए जव भाई विश्वम्भरदासजो गार्गीयने 'देवगढके जैनमंदिर' नामकी एक पुस्तक
बात ही क्या
वर्तव्य की ओर
करीब शिला