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________________ अस्पृश्यता निवारक आम्दोलन ८०३ मनुष्य, परस्पर ऊँच-नीच और स्पृश्यास्पृश्यका भेद न करके एकही मनुष्य -कोटि मे बैठते थे । इस आदर्शसे जैनियोको किस वातकी शिक्षा मिलती है ? ३ एक अछूत जातिके मनुष्यको आज हम छूते नही, अपने पास नही बिठलाते और न उसे अपने कूएँसे पानी भरने देते हैं । परन्तु कल वह मुसलमान या ईसाई हो जाता है, चोटी कटा लेता है, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू देवताओको बुरा कहने लगता है, धार्मिक दृष्टिसे एक दर्जे और नीचे गिर जा सकता है और प्रकारान्तसे हिन्दुओका हित शत्रु वन जाता है, तब हम उसको छूनेमे कोई परहेज नही करते, उससे हाथ तक मिलाते हैं, उसे अपने पास बिठलाते हैं, कभी कभी उच्चासन भी देते हैं और अपने कूएँसे पानी न भरने देनेकी तो फिर कोई वात ही नही रहती । वह खुशीसे उसी कूएँपर बराबर पानी भरा करता है । हमारी इस प्रवृत्तिका क्या रहस्य है ? क्या यह सब हिन्दू धर्मका ही खोट था जिसको धारण किये रहने की वजहसे वह बेचारा उन अधिकारोसे वचित रहता था और उसके दूर होते ही उसे वे सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं ? ये सब खूब सोचने और समझनेकी बाते हैं । ४ किसी व्यक्तिको अस्पृश्य या स्पृश्य ठहराना, एक वक्त में अस्पृश्य और दूसरे वक्तमे स्पृश्य बतलाना अथवा उसका एक जगह अस्पृश्य और दूसरी जगह स्पृश्य करार दिया जाना, यह सब विधि-विधान, लोकाचार, लोकव्यवहार और लौकिक धर्मसे सम्बद्ध है या पारलौकिक धर्म अथवा परमार्थसे इसका कोई खास सम्बन्ध है ? इसपर भी खास तौरसे विचार होने की जरूरत है । जहाँ तक मैंने धार्मिक ग्रंथोका अध्ययन किया है,
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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